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तृतीयोऽध्यायः
उदीच्यां ब्राह्मणान् हन्ति प्राच्यामपि च क्षत्रियान् । वैश्याद् निति वा पतीच्यां शूद्र घातिनी ।। १९ ।।
( उदीच्यां ) उत्तर दिशा में गिरे तो (ब्राह्मणान् ) ब्राह्मणों को ( हन्ति ) धात करती है (च) और (प्राच्यामपि ) पूर्व में गिरे तो (क्षत्रियान् ) क्षत्रियों को ( याम्यायां ) दक्षिण में गिरे तो ( वैश्यान् ) वैश्यों को ( निहन्ति ) घात करती है ( प्रतिच्यां ) पश्चिम में गिरे तो ( शूद्र) शूद्रों का (घातिनी) घात करती है।
भावार्थ — यदि उल्का उत्तर दिशा में गिरे तो ब्राह्मणों का नाश करती है, पूर्व में गिरे तो क्षत्रियों का घात करती है, दक्षिण में पतन हो तो वैश्यों को नष्ट करती है और पश्चिम में उल्का गिरे तो मानो शूद्रों को महान भय होगा ॥ १९ ॥
उल्का रूक्षेण वर्णेन् स्वं स्वं वर्ण प्रबाधते । स्निग्धा चैवानुलोमा च प्रसन्ना च न बाधते ॥ २० ॥ (उल्का) उल्का (रूक्षेण) रूक्ष (वर्णेन) वर्ण वाली होकर ( स्वं ) अपने (स्वं) अपने (वर्ण) वर्ण को (प्रबाधते) बाधा देती है (स्निग्धा) स्निग्ध (च) और (वानुलोम ) अनुलोम हो ( प्रसन्ना) प्रशन्न दिखती हो तो ( बाधते) बाधा (न) नहीं देती है।
भावार्थ - उल्का प्रत्येक वर्ण के साथ रूक्ष होती हुई गिरे तो क्रमश: चारों रंगों के अनुसार चारों वर्ण वालों को बाधा देती है, किन्तु स्निग्ध व अनुलोम रूप और प्रशन्न दिखे तो किसी को भी बाधा नहीं दिखाई देती है ॥ २० ॥
या चादित्यात् पतेदुल्का वर्णतो वा दिशोऽपि वा । तं तं वर्णं निहन्त्याशु वैश्वानर इवार्चिभिः ॥ २१ ॥
(या) जो (उल्का) उल्का ( चादित्यात्) सूर्य के समान वर्ण वाली होकर (पतेद्) गिरे तो (वर्ण तो) वर्ण वाली होकर (दिशोऽपि वा ) दिशा में गिरे तो (तं) उसी (तं) उसी (वर्ण) वर्ण को ( निहन्त्याशु ) नाश करती है (वैश्वानर ) अग्नि की ( इवार्चिभि:) ज्वाला के समान ।
भावार्थ —— यदि उल्का सूर्य के अन्दर से निकलती हुई जिस-जिस रंग की हो और जिस दिशा में गिरे तो उसी उसी क्रमशः ब्राह्मणादि वर्ण वालों का नाश
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