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भद्रबाहु संहिता |
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शनि पर्वत अत्याधक उन्नत हो तो जातक कृपण, निरुत्साही, शंकालु तथा एकान्त सेवी होता है। यदि अन्य लक्षण भी अशुभ हो तो अपराधी वृत्ति का तथा पापी होता है।
शनि पर्वत उचित परिमाण मे हो तथा अंगुलियों के प्रथम पर्व लम्बे हों तो जातक शास्त्रों का गंभीर अध्येता होता है; द्वितीय पर्व अधिक लम्बे हो तो नीच प्रकृति का तथा चालाक होता है।
शनि पर्वत निम्न (नीचा) हो तो जातक दुःखी, दुर्गुणी, मिथ्यावादी, व्यसनी, दुराचारी, जुआरी, विश्वासघाती, लोभी तथा कायर होता है। अत्यधिक नीचा तथा चपटा हो तो दाँत एवं कान की बीमारी एवं दीर्घ कालीन रोगों से पीड़ित रहता
शनि तथा सूर्य दोनों पर्वत निम्न हो तो जातक कुटिल, नीच, रोगी तथा निर्धन होता है और पर्वतों की अपेक्षा केवल शनि का पर्वत ही अधिक उन्नत हो तो जातक उदर एवं दन्त रोगी होता है।
शनि क्षेत्र सूर्य क्षेत्र की ओर झुका हो तो जातक परिश्रमी होते हुए भी चिन्तातुर तथा उदासीन रहता है। गुरुक्षेत्र की ओर झुका हो तो बन्धु-बांधवों तथा राज्य भय से पीड़ित, चिन्तातुर एवं उदासीन रहता है तथा अपनी मध्यमआयु के बाद पुत्रादि के द्वारा सुख-सन्तोष पाता है।
शनि तथा सूर्य दोनों क्षेत्र उन्नत हों तो जातक को बन्धु नाश एवं स्त्री वियोग जन्य दुःख मिलता है। बाद में वह अपने एक मात्र प्रतापीपुत्र के कारण ही सुख सन्तोष पाता है। यदि दोनों पर्वत निम्न हों तो रोगी, निर्धन तथा कुटिल होता है।
शनि तथा चन्द्र दोनों क्षेत्र उन्नत हों तो जातक सुखी, धनी, स्वाभिमानी, विचारशील तथा काल्पनिक होता है। यदि दोनों क्षेत्र अत्यधिक उन्नत अथवा निम्न हों तो विपरीत फल मिलता है।
शनि तथा शुक्र-दोनों क्षेत्र उन्नत हों तो जातक गुप्त विद्याओं का जानकार, शास्त्रज्ञ, वेदान्ती, ज्ञानी तथा धर्मनिष्ठ होता है।
शनि तथा बुध दोनों पर्वत उन्नत हों तो जातक धूर्त, लुच्चा तथा पापी होता है। यदि अन्य लक्षण शुभ हों तो विद्वान एवं कुशल-व्यवसायी भी हो सकता है।