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पञ्चदशोऽध्यायः
(दक्षिणे पथि) दक्षिण मार्ग में शुक्र का (पुरस्तात्) सम्मुख (त्रैमासिक: प्रवास: स्यात्) त्रैमासिक अस्त होता है, (मध्येस्यात्) मध्य में (पञ्चसप्ततिर:) पचहतर दिनों का और (तथोत्तरे) तथा उत्तर में (पञ्चाशीतिः) पिच्यासी दिनों का अस्त होता है, (पृष्ठतो दक्षिणे पथि) पीछे दक्षिण भाग में (चतुर्विशत्पहानिस्युः) चौबीस दिनों का (मध्ये) मध्य में (पञ्चदशाहानि) पन्द्रह दिनों का और (उत्तरेपथि षड्हान्य) उत्तर मार्ग में छह दिनों अस्त होता है।
भावार्थ-दक्षिण मार्ग में शुक्र सम्मुख त्रैमासिक अस्त होता है मध्यम में पचहत्तर दिनों का उत्तर में पिच्यासी दिनों का पीछे से दक्षिण मार्ग में चौबीस दिनों का मध्यमें पन्द्रह दिनों का उत्तर मार्ग में छह दिनों का अस्त होता है।। १५७-१५८ ।।
ज्येष्ठानुराधयोश्चैव द्रौ मासौ पर्वतो विदः ।
अपरेणाष्टरानं तु तौ च सन्ध्ये स्मृते बुधैः ।। १५९ ।। (ज्येष्ठानुराधयोश्चैव) ज्येष्ठा और अनुराधा में (पूर्वतो) पूर्व की ओर (द्वौ मासौ) दो महीनों की और (अपरेणाष्ट रात्रं तु) पश्चिममें आठ रात्रि की (सन्ध्ये) सन्ध्या (तौ च स्मृते बुधै विदु:) उसी प्रकार विद्वानों के द्वारा कही गई है।
भावार्थ-ज्येष्ठा और अनुराधा में पूर्व की ओर दो महीनों की ओर पश्चिम में आठ रात्रि की सन्ध्या विद्वानों के द्वारा कही गई है ऐसा आप जानो॥१५९।।।
मूलादि दक्षिणो मार्गः फाल्गुन्यादिषु मध्यमः।
उत्तरश्च भरण्यादिर्जघन्यो मध्यमोऽन्तिमौ ॥१६॥ (मूलादि दक्षिणो मार्ग:) मूलादि नक्षत्र में दक्षिण मार्ग है (फाल्गुन्यादिषु मध्यमः) पूर्वा फाल्गुन आदि नक्षत्र मध्यम मार्गी है (भरण्यादि: उत्तरश्च) भरणी आदि उत्तरमार्गी है (जघन्योमध्यमोऽन्तिमौ) इनमें प्रथम मार्ग जघन्य है और अन्तिम दोनों मध्यम
भावार्थ-मूलादि नक्षत्र में दक्षिण मार्ग होता है पूर्वाफाल्गुनी आदि नक्षत्र मध्यम मार्गी हैं भरण्यादिक उत्तरमार्गी है इनमें प्रथम मार्ग जघन्य और अन्य का मार्ग मध्यम और जघन्य दोनों ही है।। १६०॥