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त्रयोर्विशतितमोऽध्यायः
दक्षिणं मार्गमाश्रित्य वध्यन्ते प्रवरा नराः।
चन्द्रस्तूत्तरमार्गस्थः क्षेम सौभिक्षकारकः ॥ ३४॥ (चन्द्र) यदि चन्द्रमा (दक्षिणं मार्गमाश्रित्य) दक्षिण मार्ग का आश्रय लेकर रहे तो (प्रवरा नरा: वध्यन्ते) बड़े-बड़े पुरुषों का वध होता है। और यदि वही चन्द्रमा (स्तूत्तरमार्गस्थः) उत्तर मार्ग का आश्रय ले तो (क्षेम सौभिक्षकारक:) क्षेम कुशल और सुभिक्ष कारक होता है।
भावार्थ-चन्द्रमा दक्षिण मार्ग का आश्रय लेकर रहे तो बड़े पुरुषों का वध होता है, वही चन्द्रमा उत्तर का हो तो क्षेम कुशल और सुभिक्ष कारक होता है।। ३४ ।।
चन्द्रसूर्यो विशृङ्गौ तु मध्यच्छिद्रौ हतप्रभो।
युगान्तमिव कुर्वन्तौ तदा यात्रा न सिद्ध्यति॥३५॥ यदि (चन्द्रसूर्यो) चन्द्रमा और सूर्य (विशृङ्ग तुमध्यच्छिद्रौहतप्रभौ) विशृंग और मध्य में छिद्र से युक्त हत प्रभ दिखे तो (युगान्तमिव कुर्वन्तो) युगान्त के समान प्रलय कारक होता है (तदा) तब (यात्रा न सिद्धयति) यात्रा की सिद्धि नहीं होती
"वार्थ-यदि चन्द्रमा और सूर्य विशृंग हो मध्याच्छिद्रवाला हो हत प्रभ हो तो युग का अन्त आ गया हो, उसके समान प्रलय कारक होता है। ऐसे में यात्रा नहीं करनी चाहिये,नहीं तो सिद्धि नहीं होती है।। ३५॥
यदैकनक्षत्र गतौ कर्यात् तद्वर्ण सङ्करम्।
विनाशं तत्र जानीयाद् विपरीते जयं वदेत् ॥ ३६॥ (यदेक नक्षत्रगतौ) यदि एक नक्षत्र पर जाकर सूर्य और चन्द्रमा (तद्वर्ण सङ्करम् कुर्यात्) वर्ण संकर करे तो (तत्र) वहाँ पर (विनाशं जानीयाद्) विनाश होगा ऐसा जाने (विपरीते जयं वदेत्) विपरीत दिखे तो जय समझें।
भावार्थ-यदि एक नक्षत्र पर सूर्य और चन्द्रमा वर्ण संकर होता हुआ दिखे तो वहाँ पर विनाश होगा उससे विपरीत दिखे तो जय होगी ऐसा कहे॥३६॥