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त्रयोदशोऽध्यायः
( तस्मात् ) इस कारण से (जिन भाषितम् ) जिन भाषित हो जो ( निमित्तं) निमित्त ज्ञान है, वह (पुण्यं ) पुण्यरूप ( स्वर्गास्पदं ) स्वर्ग के सुख को देने वाला (पावनं ) पावन (परमं श्रीमत् ) परम लक्ष्मी को देने वाला (काम) सर्व इच्छा की पूर्ति करने वाला (च) और (प्रमोदकम् ) प्रमोद को बढ़ाने वाला है।
भावार्थ – इस कारण से जिनेन्द्र प्रभु के द्वारा कहा हुआ निमित्त ज्ञान हैं, वह पुण्यरूप सर्व इच्छाओं की पूर्ति करने वाला, स्वर्ग के सुख को देने वाला, परम पावन सर्व लक्ष्मी का धाम व प्रमोद को बढ़ाने वाला हैं ॥ ४२ ॥
निमित्तवित् ।
रागद्वेषौ च मोहञ्च वर्जयित्वा देवेन्द्रमपि निर्भीको यथाशास्त्रं समादिशेत् ।। ४३ ।।
( निमित्तवित्) निमित्त ज्ञानी को (रागद्वेषौ च मोहञ्च ) राग, द्वेष और मोह को (वर्जयित्वा ) छोड़कर (देवेन्द्रमपि निर्भीको) देवेन्द्रादिक से भी नहीं डरते हुए ( यथा शास्त्रं समादिशेत् ) जैसा शास्त्र में लिखा है वैसा ही निमित्त जानकर कहे। भावार्थ --- निमित्तज्ञानी को सर्वराग, द्वेष, मोह छोड़कर देवेन्द्रादिक से भी नहीं डरते हुए जैसा शास्त्र में लिखा है वैसा ही कहें। क्योंकि निमित्त ज्ञानी किसी भी परिस्थिति में भयभीत नहीं होता है यथावत् राजा को सर्व परिचित करा देता है ॥ ४३ ॥
सर्वाण्यपि निमित्तानि
अनिमित्तानि
सर्वशः । नैमित्ते पृच्छतो याति निमित्तानि भवन्ति च ॥ ४४ ॥ (सर्वाण्यपि निमित्तानि) सम्पूर्ण निमित्त (च) और (सर्वशः) सभी ( अनिमित्तानि) अनिमित्त (नैमित्ते ) निमित्त ज्ञानी से (पृच्छतो) पूछने पर ( निमित्तानि) निमित्त ही ( भवन्ति च ) हो जाते हैं।
भावार्थ — जितने भी निमित्त या अनिमित्त है वो सब निमित्त ज्ञानी को पूछने पर निमित्त हो जो है ॥ ४४ ॥
यथान्तरिक्षात् पतितं यथा भूमौ च तिष्ठति । तथाङ्गजनिता चेतं निमित्तं
फलमात्मकम् ।। ४५॥
( यथा ) यथा ( अन्तरिक्षात् पतितं ) आकाश में दिखने वाले, (यथा भूमौ