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भद्रबाहु संहिता
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च तिष्ठति) और भूमि पर ठहरने वाले, (तथाङ्गजनिता चेष्ठ) व शरीर से उत्पन्न होने वाले (निमित्त) निमित्त (फलमात्मकम) फलको देते हैं।
भावार्थ-निमित्त तीन प्रकार के होते हैं, प्रथम आकाश में दिखाई देने वाले, दूसरे पृथ्वी पर दिखने वाले, तीसरे शरीर में उत्पन्न होने वाले, ये तीनों ही निमित्त स्वयं को या पर को फल देते हैं॥४५॥
पतेनिम्ने यथाप्यम्भो सेतुबन्धे च तिष्ठति।
चेतो निम्ने तथा तत्त्वं तद्विद्यादफलात्मकम्॥ ४६॥ (यथा) जैसे (प्यम्भो) पानी (पतेन्निम्ने) नीचे की ओर गिरता जाता है किन्तु (सेतु बन्धे च तिष्ठन्ति) सेतु बांध देने पर ठहर जाता है, (तथा) उसी प्रकार (चेतो निम्न तत्त्वं) चित्त भी निम्नता की ओर ही ठहरता है (तद्विद्याद फलात्मकम्) लेकिन उसका फल निष्फल होता है।
भावार्थ-जिस प्रकार पानी नियम से नीचे-नीचे की तरफ ही बहता है किन्तु वही पानी के लिये सेतु बांध दिया तो ठहर जाता है उसी प्रकार मानव का चित्त भी निम्नता की ओर ही जाता है लेकिन उसका फल कुछ भी नहीं होता॥ ४६॥
बहिरङ्गाश्च जायन्ते अन्तरङ्गाश्च चिन्तितम् ।
तज्ज्ञः शुभाशुभं ब्रूयानिमित्तज्ञानकोविदः ।। ४७॥ (अन्तरजाश्च चिन्तितम्) अन्तरज में चिन्ता करने पर ही (बहिरङ्गाश्च जायन्ते) बहिरङ्ग में विकार आता है (तज्ज्ञः) इसलिये उसको जानकर (निमित्तज्ञानकोविदः) निमित्त ज्ञान के जानकार को (शुभाऽशुभं ब्रूयान्) शुभाशुभ कहना चाहिये।
भावार्थ-निमित्त ज्ञान के जानकार को सब प्रकार के शुभाशुभ को जानकर ही कहना चाहिये, क्योंकि अन्तरंग में जो विचार होता है वही बहिरंग में विकार रूप होकर दिखता है, और बहिरंग से ही निमित्त दिखाई पड़ते हैं॥४७॥
सुनिमित्तेन संयुक्तस्तत्परः साधुवृत्तयः ।
अदीनमन संकल्पो भव्यादि लक्षयेद् बुधः॥४८ ।। (सुनिमित्तेन संयुक्तः) सुनिमित्तों से संयुक्त होकर (साधु वृत्तय: तत्परः) साधु