________________
भद्रबाहु संहिता
३९६
भावार्थ-जब घोड़े शान्त, प्रशन्न, काम से पीड़ित होकर स्त्रियों के द्वारा देखे जाते हो तो उसका शुभाशुभ ग्रहण नहीं करना चाहिये ।। १५९॥
मूत्रं पुरीषं बहुशो विलुप्ताङ्गा प्रकुर्वतः।
हेषन्ते दीननिद्रार्तास्तदा कुर्वन्ति ते जयम्॥१६०॥ यदि घोड़े (बहुशो विलुप्ताझा) विलुप्ताज होकर (मूत्रं पुरीषं) मूत्र और लीद (प्रकुर्वतः) करे तो (दीननिद्रार्ताः हेषन्ते) दीन होकर सोते हुऐ आर्त स्वर करे तो (ते) (जयम् कुर्वन्ति) जय को कराते हैं।
भावार्थ-यदि घोड़े विलुप्त अंग होकर बहुत सारा मूत्र करे, और लीद करे, दीन होकर आर्तश्वर से हँसे तो, विजय की सूचना मिलती है।। १६० ।।
स्तम्भयन्तोऽथ लांगूलं हेषन्तो दुर्मनो हयाः।
मुहुर्मुहुश्च जुभन्ते तदा शस्त्रभयं वदेत् ॥१६१॥ यदि (हयाः) घोड़े (दुर्मनो) खिन्न होकर (लांगूलं) पूंछ को (स्तम्भयन्तोऽथ) स्तम्भित करता हुआ (हेषन्तो) हँसे और (मुहुर्मुहुश्च भन्ते) धीरे-धीरे जंभाई ले तो (तदा) तब (शस्त्र भयं वदेत्) शस्त्र भय कहे।
भावार्थ-जब घोड़े खिन्न होकर अपनी पूंछ को स्तम्भित करता हुआ धीरे-धीरे जुभाई ले तो समझो शस्त्र भय होगा ऐसा कहे॥१६॥
यदा विरुद्धं हेषन्ते स्वल्पं विकृतिकारणम्।
तदोपसर्गो व्याधिर्वा सद्यो भवति रात्रिजः ॥१६२ ।। (यदा) जब घोड़े (स्वल्पं विकृति कारणम् हेषन्ते) थोड़ा ही विकृत कारण मिलने पर हँसते हो (तद) तब (रात्रिजः) रात्रिमें होनेवाले (उपसर्गो व्याधिर्वा सद्योभवति) उपसर्ग व्याधि शीघ्र होती है।
भावार्थ-जब घोड़े थोड़ा ही विकृत कारण मिलने पर हँसते हो तो रात्रि में होने वाली व्याधियाँ या उपसर्ग शीघ्र होते हैं।। १६२॥
भूम्यां ग्रसित्वा ग्रासं तु हेषन्ते प्राङ्मुखा यदा। अश्वारोधाश्च बद्धाश्च तदा क्लिश्यति क्षुभयम्।। १६३॥