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भद्रबाहु सहिता
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युद्धानि कलहा बाधा विरोधाऽरिविवृद्धयः।
अभीक्ष्णं यत्र वर्तन्ते तं देशं परिवर्जयेत्॥१२७॥ (युद्धानि कलहा बाधा) युद्ध, कलह, बाधा, (विरोधाऽरिविवृद्धय:) शत्रु के विरोध की वृद्धि (यत्र) जहाँ पर (अभीक्ष्णं वर्तन्ते) अभीक्ष्ण दिखाई देते हो तो (तं) उस देशं) देश को (परिवर्जयेत्) शीघ्र छोड़ देना चाहिये।
भावार्थ-जिस देश में निरन्तर युद्ध हो, झगड़े होते हो, अन्य बाधा हो, शत्रुओं के विरोध की वृद्धि दिखे तो उस देश को शीघ्र छोड़ देना चाहिये ।। १२७ ।।
विपरीता यदा छाया दृश्यन्ते वृक्ष-वेश्मनि।
यदा ग्रामे पुरे वाऽपि प्रधानवधमादिशेत्॥१२८॥ (यदा) जब (ग्रामे पुरे) ग्राम और नगर में (वृक्ष-वेश्मनि) घरों की व वृक्षों की (छाया विपरीता दृश्यन्ते) छाया विपरीत दिखाई पड़े (वाऽपि) तो भी (प्रधानवधमादिशेत) प्रधान का वध होता है।
भावार्थ-जब ग्राम, नगर के वृक्षों व घरों की छाया विपरीत दिखलाई पड़े तो नगर प्रधान का वध होता है।। १२८॥
महावृक्षो यदा शाखामुत्करां मुञ्चते द्रुतम्।
भोजकस्य वधं विन्यात् सर्पाणां वधमादिशेत्॥१२९॥ (यदा) जब (महावृक्षो) महावृक्ष (उत्करां) अकारण ही (द्रुतम्) शीघ्र ही (शाखां मुञ्चते) शाखा को नीचे गिराता है तो (भोजकस्य वध) सपेरों का वध होता है (सर्पाणां वधमादिशेत्) और सों का भी वध होता है।
भावार्थ-यदि महावृक्षों से अपने आप ही शाखा टूट कर नीचे अकस्मात गिराता है, तो समझो सपेरों का और सर्पो का वध होता है॥१२९॥
पांशुवृष्टितथोल्का च निर्घाताश्च सुदारुणाः।
यदा पतन्ति युगपद् ध्वन्ति राष्ट्र सनायकम्॥१३०॥ (यदा) जब (सुदारुणा:) महा भयंकर (पांशुवृष्टिः) धुलि की वृष्टि (तथोल्का च) और उल्का का पतन (निर्घाताश्च) बिजली के कड़कड़ाहट (पतन्ति) गिरती