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भद्रबाहु संहिता
(परम्पर) परस्पर (राजानः) राजाओंका (विरोधिनः) विरोध (उत्पद्यन्ते) उत्पन्न होता है (यानयुग्यानिशोभन्ते) सेना की वृद्धि (च) और (बलवइंष्ट्रिवर्धनम्) दांत वाले चूहों की भी वृद्धि होती है।
भावार्थ-यदि वर्षा रेवती नक्षत्र को बरसे तो चौसठ आढ़क प्रमाण वर्षा होती है धान्यो की समृद्धि होती है सजाओंमें परस्पर बहुत विरोध बढ़ता है दांत वाले जीवों की वृद्धि होती है सेना की भी वृद्धि होती है।। १७-१८॥
एकोनानि तु पञ्चाशदाढकानि समादिशेत् । अश्विन्यां कुरुते यत्र प्रवर्षणम संशयः॥१९॥ भवेतामुभये सस्ये पीड्यन्ते यवना: शकाः ।
गान्धारिकाश्च काम्बोजा: पाञ्चालाश्च चतुष्पदाः॥२०॥ (अश्विन्यां) अश्विनी नक्षत्रको यदि मेघ (प्रवर्षणम्) वर्षा (कुरुते) करे (तु) तो (एकोनानि पञ्चाशदाढकानि) उनपचास आढ़क प्रमाण वर्षा होगी, (समादिशेत्) ऐसा कहा गया है (यत्र) यहाँ पर (असंशयः) संशय नहीं करना चाहिये (भये सस्ये भवेताम्) दोनों ही महीनोमें (सस्य) धान्य उत्पन्न होगा, (यवानः शका:) पवन, शक (गान्धारिकाश्च) गान्धार (काम्बोजाः) कम्बोज (पञ्चालाश्च) पाञ्चाल (च) और (चतुष्पदा) चौपायोंको (पीड्यन्ते) पीडा पहुँचती है।
भावार्थ-यदि अश्विन नक्षत्रमें वर्षा होवे तो चौसठ आढ़क प्रमाण वर्षा होती है और क्रमश: सभी प्रकार के धान्यो की उत्पत्ति होती और प्रथम के दो माह में ही हो जाती है और पक्न शक गान्धार काम्बोज पाञ्चाल के चतुष्पद माने चार पाँवों वाले जीवों को कष्टदायक है॥१९-२० ।।
एकोनविंशतिर्विन्द्यादाढकानि न संशयः । भरण्यां वासवश्चैव यदा कुर्यात् प्रवर्षणम्॥२१॥ व्यालाः सरी सृपाश्चैवमरणं व्याधयो रुजः।
सस्यं कनिष्ठं विज्ञेयं प्रजा: सर्वाश्च दुःखिता ।। २२ ।। (यदा) जन्न (भरण्या) भरणी नक्षत्रमें (वासवश्चैव) वर्षा प्रारम्भ हो और (प्रवर्षणम्) वषा हो (कुर्यात) हो तो (यदा) तब (एकोनविंशतिः) उन्नीस (आढकानि)