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चतुर्दशोऽध्यायः
भावार्थ-जब देवता धूम, ज्वाला, धूल, भस्म बरसावे तो राजा का मरण होगा और जनता का क्षय होगा॥१०९॥
अस्थिमांसः पशूनां च भस्मनां निचयैरपि।
जनक्षयाः प्रभूतास्तु विकृते वा नृपवधः ॥११०॥ (पशूनां) पशुओं का (अस्थिमासै: च) अस्थि और मांस (भस्मनां निचयैरपि) भस्म बरसे तो निश्चय (प्रभूतास्तु जनक्षयाः) महान जनक्षय होगा (विकृते वा नृप वध:) व विकृत हो तो राजा का वध होगा।
भावार्थ-यदि पशुओं के मांस व हड्डीयाँ व भस्म आकाश से बरसे तो निश्चय महान् जनक्षय होगा, अगर विकृत दिखे तो राजा का वध होगा ।। ११० ।।
विकृताकृति संस्थाना जायन्ते यत्र मानवाः।
तत्र राजवधो ज्ञेयो विकृतेन सुखेन वा॥१११ ॥ (यत्र) जहाँ पर (मानवाः) मानव (विकृताकृति संस्थाना) विकृत आकृति संस्थान वाले (जायन्ते) होते है (तत्र राजवधो ज्ञेयो) वहाँ पर राजा का वध जानना चाहिये। (विकृतेन सुखेन वा) विकृत दिखे तो सुख का क्षय होता है।
भावार्थ-जहाँ पर मनुष्य विकृत आकृति संस्थान वाले होते हुए दिखाई पड़े तो राजा का मरण होगा, विकृत दिखाई दे तो सुख का क्षय होगा ॥ १११ ।।
वधः सेनापतेश्चापि भयं दुर्भिक्षमेव च।
अग्नेर्वा हाथवा वृष्टिस्तदा स्यान्नात्र संशयः॥११२॥ (अग्नेर्वा ह्यथवा वृष्टिः) यदि अग्नि की वर्षा आकाश से हो (तदा) तब (सेनापते: वध:) सेनापति का वध होगा, (चापि) और भी (भयं) भय होगा, (च) और (दुर्भिक्ष मेव) दुर्भिक्ष ही होगा, (स्यान्नात्र संशयः) इसमें कोई सन्देह नहीं हैं।
भावार्थ--अगर आकाश से अग्नि वर्षा हुई दिखे तो समझो सेनापति का वध होगा, भय उत्पन्न होगा, दुर्भिक्ष होगा इसमें कोई सन्देह नहीं है।। ११२॥
द्वारं शस्त्रगृहं वेश्म राज्ञो देवगृहं तथा। धूमायन्ते यदा राज्ञस्तदा मरणमादिशेत्।। ११३।।