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सप्तदशोऽध्यायः
( उत्तरतो मूलम् याति) उत्तर से मूल को और (दक्षिणतो स्वातिं व्रजेत्) दक्षिण से स्वाति नक्षत्र को प्राप्त करता है, (शेषाणि तु समन्ताद्दक्षिणोत्तरे ) बाकी के दक्षिण और उत्तर (नक्षत्राणि) के नक्षत्र होते हैं।
भावार्थ — गुरु उत्तर से मूल और दक्षिण से स्वाति नक्षत्र को प्राप्त करता है, बाकी सब नक्षत्र दक्षिणोत्तर से प्राप्त करते हैं ॥ ७ ॥
मूषके तु यदा ह्रस्वो मूलं दक्षिणतो दक्षिणस्तद विवादनयोर्दक्षिणे
व्रजेत् । पथि ॥ ८ ॥
( यदा) जब ( मूषके तु) केतु (ह्रस्वो ) लघु होकर (मूलं दक्षिणतो व्रजेत् ) दक्षिण से मूल नक्षत्र की ओर जाता है तो ( अनयोर्दक्षिणे पथि) तो गुरु और केतु दोनों ही (दक्षिणतस्तदा विन्द्याद्) दक्षिणमार्गी कहलाते हैं।
भावार्थ — जब केतु लघु होकर दक्षिण से मूल नक्षत्र की तरफ जाता है तो गुरु और केतु दोनों ही दक्षिणमार्गी कहे जाते हैं ॥ ८ ॥
अनावृष्टिहता देशा बुभुक्षा ज्वर नाशिता: ।
चक्रारूढा प्रजास्तत्र बध्यन्ते जाततस्कराः ॥ ९ ॥
इन दोनों के दक्षिण मार्ग में रहने से (अनावृष्टिहता देशा) वर्षा के नहीं होने से देश नष्ट हो जाता है (बुभुक्षा ज्वर नाशिताः) ज्वर के रोग से व्यक्तियों की मृत्यु होती है ( तत्र चक्रारूढा प्रजा: ) वहाँ की प्रजा चक्रारूढ के समान हो जाती है (बध्यन्ते जाततस्करा :) चोरों के द्वारा सब दुःखी होते हैं।
भावार्थ — इन दोनों के दक्षिणमार्ग में रहने से वर्षा के नहीं होने पर देश का नाश होता है ज्वर के रोग से सबकी मृत्यु हो जाती है, वहाँ की प्रजा चक्रारूढ के समान घूमती है और चोरों के द्वारा कष्ट प्राती हैं ॥ ९ ॥
यदा चोत्तरतः स्वातिं दीप्तो याति बृहस्पतिः । उत्तरेण तदा विन्द्याद् दारुणं भयमादिशेत् ॥ १० ॥
( यदा) जब ( चात्तरतः स्वातिं) उत्तर दिशा का स्वाति नक्षत्र पर (बृहस्पति' दीप्तो याति) गुरु दीप्त होता है, तो (तदा) तब ( उत्तरेण ) उत्तर की दिशा में ही (दारुणं भयामादिशेत् विन्द्याद्) दारुण भय होगा ऐसा जानना चाहिये ।