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भद्रबाहु संहिता
भावार्थ-जब गुरु प्रकाशमान होकर उत्तर की ओर स्वाति नक्षत्र को प्राप्त करता है तो समझो उत्तर दिशा में ही महान् भय उपस्थित होगा ।। १०॥
लुप्यन्ते च क्रियाः सर्वा नक्षत्रे गुरुपीड़िते।
दस्यवः प्रबला ज्ञेया बीजानि न प्ररोहति ॥११॥ (नक्षत्रेगुरुपीडिते) गुरु के द्वारा नक्षत्र के पीडित होने पर (सर्वाक्रिया: च लुप्यन्ते) सभी क्रियाओं का लोप हो जाता है (दस्यवः प्रबलाज्ञेया) चोरों की शक्ति बढ़ती है (बीजानि न प्ररोहति) इसलिये बीजों का वपन नहीं करना चाहिये।
भावार्थ-गुरु के द्वारा नक्षत्र के पीडित होने पर सभी क्रियाओं का लोप हो जाता है, चोरों की शक्ति बढ़ जाती है, बीजों का वपन नहीं करना चाहिये।। ११॥
दक्षिणेन तु वक्रेण पञ्चमे पञ्च मुच्यते।
उत्तरे पञ्च के पञ्च मार्गे चरति गौतमः ।।१२॥ (गौतम:) गुरु के (दक्षिणेन) दक्षिण के (पञ्चमे पञ्च वक्रेण मुच्यते) पञ्चम मार्गों में पञ्चम मार्ग वक्र गति द्वारा पूर्ण किया जाता है, और (उत्तरे) उत्तर के (पञ्चके पञ्चमार्गे चरति) पाँच मार्गों में पञ्चम मार्ग मार्गी गति द्वारा पूर्ण किया जाता है।
भावार्थ-गुरु के दक्षिणी होने पर पञ्चम मार्गों में पञ्चम मार्ग वक्रगति द्वारा पूर्ण किया जाता है और उत्तर के पाँच मार्गों में पञ्चम मार्ग मार्गी गति द्वारा पूर्ण किया जाता है।। १२॥
ह्रस्वे भवति दुर्भिक्षं निष्प्रभे व्याधिजं भयम्।
विवर्णे पापसंस्थाने मन्दपुष्प-फलं भवेत्।। १३॥
गुरु के (हस्वे भवति दर्भिक्ष) हस्व होने पर दर्भिक्ष होता है (निष्प्रभे व्याधिजं भयम्) निष्प्रभ होने पर व्याधि का भय होता है (विवर्णे पाप संस्थाने) विवर्ण होने पर व पाप के स्थान पर होने से (मंदपुष्प फलं भवेत्) पुष्प और फल थोड़े होते
भावार्थ-गुरु के ह्रस्व होने पर दुर्भिक्ष पड़ता है, निष्प्रभ होने पर व्याधि