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| भद्रबाहु संहिता ।
है, तब तक अनिष्ट होने की आशंका नहीं। संहिता ग्रन्थों में प्रकृति को इष्टानिष्ट सूचक निमित्त माना गया है। दिशाएँ, आकाश, आतप, वर्षा, चाँदनी, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, उषा, सन्ध्या आदि सभी निमित्त सूचक हैं। ज्योतिष शास्त्र में इन सभी निमित्तों द्वारा भावी इष्टानिष्टों की विवेचना की गई है। इस द्वितीय अध्याय में उल्काओं के स्वरूप का विवेचन किया गया है और इनका फलादेश तृतीय अध्याय में वर्णित है। यद्यपि प्रथम अध्याय के विवेचन में उल्काओं के स्वरूप का संक्षिप्त और सामान्य परिचय दिया गया है, तो भी यहाँ संक्षिप्त विवेचन करना अभीष्ट है।
रात को प्राय: जो तारे टूटकर गिरते हुए जान पड़ते हैं, ये ही उल्काएँ हैं। अधिकांश उल्काएँ हमारे वायुमण्डल में ही भस्म हो जाती हैं और उनका कोई अंश पृथ्वी तक नहीं आ पाता, परन्तु कुछ उल्काएँ बड़ी होती हैं। जब वे भूमि पर गिरती हैं, तो उनसे प्रचण्ड ज्वाला सी निकलती है और सारी भूमि उस ज्वाला से प्रकाशित हो जाती है। वायु को चीरते हुए भयानक वेग से उनके चलने का शब्द कोसों तक सुनाई पड़ता है और पृथ्वी पर गिरने की धमक भूकम्प सी जान पड़ती है। कहा जाता है कि आरम्भ में उल्कापिण्ड एक सामान्य ठण्डे प्रस्तर पिण्ड के रूप में रहता है। यदि यह वायुमण्डल में प्रविष्ट हो जाता है तो घर्षण के कारण उसमें भयंकर ताप और प्रकाश उत्पन्न होता है, जिससे वह जल उठता है और भीषण गति से दौड़ता हुआ अन्त में राख हो जाता है और जब यह वायुमण्डल में राख नहीं होता, तब पृथ्वी पर गिरकर भयानक दृश्य उत्पन्न कर देता है।
उल्काओं के गमन का मार्ग नक्षत्र के आधार पर निश्चित किया जाय तो प्रतीत होगा कि बहुतेरी उल्काएँ एक ही बिन्दु से चलती हैं, पर आरम्भ में अदृश्य रहने के कारण वे हमें एक बिन्दु से आती हुई नहीं जान पड़तीं । केवल उल्का-झड़ियों के समान ही उनके एक बिन्दु से चलने का आभास हमें मिलता है। उस बिन्दु को जहाँ से उल्काएँ चलती हुई मालूम पड़ती हैं, संपात मूल कहते हैं। आधुनिक ज्योतिष उल्काओं केतुओं के रोड़े, टुकड़े या अङ्ग मानता है। अनुमान किया जाता है कि केतुओं के मार्ग में असंख्य रोड़े और ढोंके बिखर जाते हैं। सूर्य गमन करते-करते जब इन रोड़ों के निकट से जाता है तो ये रोड़े टकरा जाते हैं और उल्का के रूप में भूमि में पतित हो जाते हैं। उल्काओं की ऊँचाई पृथ्वी से ५०-६० मील के