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एकोनविंशतितमोऽध्यायः
मंगल संचार का वर्णन चारं प्रवास वर्ण च दिप्तिं काष्ठाङ्गतिं फलम्।
वक्रानुवक्रनामानि लोहितस्य निबोधत्॥१॥ (लोहितस्य) मंगल का (चार) चार (प्रवास) प्रवास (वर्ण) रंग, (दीप्ति) दीप्ति (काष्ठाति) काष्ठ, गति (फलम्) फल (वक्रानुवक्रनामानि) वक्र, अनुवक्रादि का फल (निबोधत्) अच्छी तरह से कहा जाता है।
भावार्थ-अब मंगल का चार, प्रवास, वर्ण, प्रकाश, काष्ठ, गति फल, वक्र अनुवक्रादिक का फल अच्छी तरह से इस अध्याय में कहा जाता है॥१॥
चारेण विंशति मासानष्टौ वक्रेण लोहितः।
चतुरस्तु प्रवासेन समाचारेण गच्छति ॥२॥ (लोहितः) मंगल का (चारण) चार (विंशति) बीस (मासान्) महीने (अष्टौ वक्रेण) वक्र आठ महीने और (प्रवासेन चत्वारस्तु) प्रवास चार महीने का (समानोरेण गच्छति) चार रूप होता है।
भावार्थ-मंगल का चार, बीस महीने तक वक्र आठ महीने और प्रवास चार महीने तक होता है ऐसा समझो॥२॥
__ अनृजुः परुषः श्यामो ज्वलितो धूमवान् शिखी।
विवर्णो वामगो व्यस्त: कुद्धो शेयस्तदाऽशुभः ॥३॥ (शिखी) मंगल (अनृजुः) टेढ़ा हो (परुष:) कठोर हो (श्यामो) काला हो (ज्वलितो धूमवान्) जलता हुआ हो, धुएं से सहित हो (विवर्णो) विवर्ण हो (वामगो व्यस्त:) वाम मार्गी हो (कृद्धो) क्रुध हो तो (तदा) तब (अशुभ:ज्ञेयः) अशुभ जानना चाहिये।
भावार्थ-मंगल वक्र हो, कठोर हो, काला हो, जलता हुआ हो, धूऐं वाला हो, विवर्ण हो, वाममार्गी हो, क्रुध हो तो अशुभ होगा, ऐसा जानो।।३।।