________________
भद्रबाहु संहिता
७७२
भावार्थ-जहां पर रूप दिखता हो उसको रूपस्थ अरिष्ट कहा और वह बहुत भेद वाला है उसको आगे क्रम से कहूंगा॥४६॥
छायापुरुषं स्वप्नं प्रत्यक्षतया च लिङ्गनिर्दिष्टम् ।
प्रश्नगतं प्रभणन्ति तद्रूपस्थं निमित्तज्ञाः ॥४७॥ (निमित्तज्ञा:) निमित्त ज्ञानीयों ने (छायापुरुषं स्वप्नं) छाया पुरुष स्वप्न, (प्रत्यक्षतया च लिङ्गनिर्दिष्टम् ) एवं प्रत्यक्ष चिन्ह को देख कर (प्रश्नगतं प्रभणान्ति) तथा प्रश्नगत कहने पर (तद्रूपस्थं) उसको रूपस्थ कहा गया है।
भावार्थ-निमित्त ज्ञानीयों ने छायापुरुष स्वप्न, अथवा प्रत्यक्षचिन्ह को देख कर तथा प्रश्न के उत्तर को रूपस्थ अरिष्ट कहा है।। ४७॥
प्रक्षालितनिजदेहः सितवस्त्राविभूषितः।
सम्यक् स्वछायामेकान्ते पश्यतु मन्त्रेण मन्त्रित्वा ।। ४८ ।। (प्रक्षालितनिजदेहः) अपने शरीर को स्नान कराकर (सितवस्त्राद्यैविभूषितः) सफेद वस्त्रों से विभूषित करे, फिर (मन्त्रेणमन्त्रित्वा) मंत्रो से मन्त्रित करके (सम्यक् स्वछायामेकान्तेपश्यतु) सम्यक् प्रकार से स्वयं की छाया को देखे।
भावार्थ-अपने शरीर को स्नान कराकर सफेद वस्त्रों से विभूषित करे फिर अपने शरीर को मंत्रों से मन्त्रित करके स्वयं की छाया को देखे।।४८।।।
इतिमन्त्रित सर्वाङ्गो मन्त्री पश्येन्नरस्य वरछायाम्। शुभदिवसे परिहीने जलधरपवनेन परिहीने ।। ४९॥ समशुभतलेवरेऽस्मिन् तोय तुषाङ्गार चर्मपरिहीने।
इतरच्छायारिहते त्रिकरणशुद्धयाप्रपश्यन्तु ॥५०॥ (इतिमन्त्रित सर्वाङ्गो) इस प्रकार अपने सर्वाङ्ग को मन्त्रित करके मंत्रवादी (नरस्य वरछायाम् पश्येन्) मनुष्य की श्रेष्ठ छाया को देखे (शुभदिवसे) शुभदीन में अशुभ से परिहीन (जलधर पवनेन परिहीने) बादलों से रहित पवन से रहित (समशुभतलेबरेऽस्मिन्) सम और शुभ वारों से सहित (तोयतुषागार चर्म परिहीने) जल, तुष, अंगारे, चमड़ा से रहित (इतरच्छायारहिते) और दूसरी छाया से भी रहित हो (त्रिकरण शुद्धया प्रपश्यन्तु) मन, वचन, कार्य की शुद्धि पूर्वक देखे।