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भद्रबाहु संहिता
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चैत्य वृक्षा रसान् यद्वत् प्रसवन्ति विपर्ययात्।
समस्ता यदि वा व्यस्तास्तदा देशे भयं वदेत्॥१७॥ (चैत्यवृक्षा) चैत्य वृक्षोंसे (विपर्ययात्) विपरीत (यद्वत्) जैसा का तैसा (रसान्) रस (प्रस्रवन्ति) गिराते है (तदा) तब उस (देशे) देश में (समस्ता यदि वा व्यस्ता:) व समस्त देश में (भयं वदेत्) भय होगा, ऐसा समझो।
भावार्थ-यदि वृक्षों से विपरीत रस टपके (निकले) तो उस देश में भय उत्पन्न होगा॥१७॥
दधि क्षौद्रं घृतं तोयं दुग्धं रेतविमिश्रितम्।
प्रसवन्ति यदा वृक्षास्तदा व्याधिभयं भेवत्॥१८॥ (यदा वृक्षाः) जब वृक्ष, (दधि क्षौद्रं घृतं तोयं दुग्धं रेतविमिश्रितम्) दही, शहद, घी, पानी, दूध, वीर्य मिश्रित रस (प्रस्रवन्ति) गिरावे तो (तदा) तब (व्याधि भयं भवेत्) व्याधिक का भय होगा।
___ भावार्थ-जब वृक्ष दही, शहद, दूध, घी, वीर्य मिश्रित रस गिरावे तो समझो महान् व्याधि का भय होगा ।। १८ ।।
रक्ते पुत्रभयं विन्यात् नीले श्रेष्ठिभयं तथा।
अन्येष्वेषु विचित्रेषु वृक्षेषु तु भयं विदुः ॥१९॥ (वृक्षेषु) वृक्षोंमें (रक्तेपुत्रभयं) लाल रस निकले तो पुत्र भय होगा, (नीलेश्रेष्ठि भयं) नीले रंग का रस हो तो सेठों को भय (तथा) तथा (अन्वेष्वेषु) और भी अन्य प्रकार विश्रित्र रूप निकले (तु) तो (भयं विदुः) जनपद को भय होगा ऐसा जानो।
भावार्थ-अगर वृक्षों में लाल रस निकले तो जानो पुत्र भय उत्पन्न होगा, नीले रंग का रस निकले तो नगर में रहने वाले श्रेष्ठि वर्गों को कष्ट होगा और भी अन्य प्रकार विचित्र रूप रस निकले तो समस्त जनपदों को भय उत्पन्न होगा ॥ १९ ॥
विस्वरं रवमानस्तु चैत्यवृक्षो यदा पतेत् । सततं भयमाख्याति देशजं पञ्चमासिकम्॥२०॥