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भद्रबाहु संहिता
ऐसा ही कर रहे है, ग्रंथों के रचयिता आचार्यों पर ही लोगों का विश्वास खत्म कर दिया, अपनी छुटपुट बुद्धि के बल पर आचार्यों की कृतियों की परीक्षा करने लगे कहाँ तो आचार्यों की कृतियाँ और कहाँ इन रागी-द्वेषी कषायी क्षुद्र, ग्रहस्थ विद्वान । छोटी बुद्धि बड़ी बात वाली कहावत चरितार्थ कर रहे हैं, आचार्यों का हमेशा ऐसा आशय रहा है कि जैसा पात्र,
और जिस बुद्धि का पात्र सामने रहता है, उसही के अनुसार सरल भाषा या कठिन भाषा का उपयोग करते हैं, विषय भी, शिष्य के अभिप्राय के अनुसार ही रहता है, शिष्य कौनसा विषय चाहता है, उसी के अनुसार दयालु आचार्यों ने वस्तु स्वरूप का प्रतिपादन किया है शिष्य प्रौढ़ भाषा वाला है तो उसको सरल भाषा अटपटी लगेगी और शिष्य सरल भाषा
और वस्तु स्वरूप को नहीं जानने वाला है तो उसको प्रौढ़ भाषा में समझाया गया वस्तु का स्वरूप समझ में ही नहीं आयेगा। दो हजार वर्ष पुराने आचार्यों के मन का अभिप्राय समझना बहुत कठिन काम है, दिव्य ज्ञान के बिना समझाना नहीं हो सकता, वर्तमान के गृहस्थ विद्वान छुटपुट चार पुस्तकों का ज्ञान कर अंशात्मक अध्ययन कर आचार्यों के अभिप्राय को समझना चाह रहे हैं, यही गलत हो रहा है, इन लोगों के मन मोहने लेख पढ़कर, लोगों की आस्था आगमा शो पर कम से मीर का मार्ग मंगों की भी कोई कीमत नहीं रही, न आचार्यों की वाणी पर श्रद्धा ही रही, कौन से आचार्यों ने कौन से समय में, कौन सा अभिप्राय लेकर कौनसे शिष्य के सामने कौन से वस्तु स्वरूप का कैसे प्रतिपादन किया यह समझाना बहुत ही कठिन कार्य है, स्यावाद अनेकान्त का पक्ष लेकर मुख्य गौण रूप में वस्त स्वरूप लिखा है. कौन से समय में कौनसा विषय मख्य करना या गौण कर इन सब बातों को उन दिव्य ज्ञानी महात्मा तपस्वियों ने ध्यान रखा वर्तमान में ऐसा नहीं हो रहा है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए परमपूज्य चारित्र चक्रवर्ती मुनिकुञ्जर आचार्य श्री आदिसागर जी (अंकलीकर) ने अपने पट्टाधीश आचार्य महावीर कीर्ति जी को इसका ज्ञान कराया था। अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी के सामने निर्ग्रन्थ शिष्य बैठे हुए हैं, और वे निर्ग्रन्थ शिष्य अष्टाङ्ग निमित्त ज्ञानों को समझना चाहते थे, इसलिये शिष्यों ने आचार्य श्री से प्रश्न किया उसका वर्णन इस प्रकार मिलता है। भद्रबाहु संहिता के प्रथम अध्याय में शिष्यों के प्रश्न भद्रबाहु स्वामी के सामने हुए थे, सो कहा है
तस्मिन् शैले सुविख्यातौनामा पाण्डुगिरिः शुभः ||३|| पर्वतों में सुविख्यात पाण्डुगिरि नाम का शुभ पर्वत है, वह पर्वत नाना वृक्षों से सहित
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