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प्रस्तावना
है, अनेक प्रकार के पक्षी शब्द कर रहे हैं, सभी प्रकार के पशु भी उस पर्वत पर विचरण कर रहे हैं और महान-महान तपस्वी साधु भी उस पर्वत पर अपनी आत्म साधना कर रहे थे। यथातत्रासीन
माहात्मानं ज्ञानविज्ञानसागरम् । तपोयुक्तं च श्रेयांसं भद्रबाहुं निराश्रयम् ॥५|| द्वादशाङ्गस्य वत्तारे निनन्ध च महाद्युतिम् ।। वृत्तं शिष्यैः प्रशिष्यैश्च निपुणंतत्त्ववेदिनाम् ॥६॥ प्रणम्यशिरसाऽऽचार्यमूचुः शिष्यास्तदा गिरम् ।
सर्वेषु प्रीतमानसो दिव्यं ज्ञानं बुभुल्मषः ॥७॥ पर्वत पर महात्मा ज्ञान विज्ञान के सागर तप से युक्त, कल्याण के सागर, पराधीनता से रहित, द्वादशाङ्ग ज्ञान के वेत्ता, निर्ग्रन्थ महाकान्ति से युक्त, शिष्य और प्रशिष्य से युक्त और जो तत्त्वों के प्रतिपादन करने में निपुण ऐसे भद्रबाहु स्वामी को नमस्कार करके जो दिव्यज्ञान को जानने के इच्छुक थे ऐसे शिष्यों ने प्रश्न किये।
पार्थिवानां हितार्थाय शिष्याणां हितकाम्यया ।
श्रावकाणां हितार्थाय दिव्यं ज्ञानं ब्रवीहि नः ॥८ हे स्वामिन राजाओं के हित व शिष्यों के हित व श्रावकों के हित के लिये हमें दिव्यज्ञान का उपदेश दीजिये।
उपर्युक्त श्लोकों से यही सिद्ध होता है कि, यह ग्रंथ निश्चित ही भद्रबाहु स्वामी के मुख से ही शिष्यों को कहा गया। शिष्यों के प्रश्न करने पर ही अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी ने इस ग्रंथ को कहा। इस ग्रंथ का प्रथम अध्याय शिष्यों के प्रश्न रूप में गुरु देव भद्रबाहु की स्तुति करते हुए प्रश्न किये हैं।
ग्रंथकर्ता की कीर्ति व नाम मंगलाचरण प्रशस्ति आदि से ही पता चल जाता है कि ग्रंथ के कर्ता कौन, कौन से समय में लिखा गया, किसके लिये लिखा गया है।
इन सब बातों से अच्छी तरह से पता लग गया है कि ग्रंथ के प्रतिपादन करने वाले तो भद्रबाहु श्रुतकेवली हैं, हाँ यह अवश्य हो सकता है कि ग्रंथ के लिये बद्ध कालान्तर में किसी द्वितीय भद्रबाहु ने किया हो, हमको शंका का कोई स्थान ही नहीं है।