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भद्रबाह संहिता
पाको समाहितः) जो पक जाने के बाद फल देता है (कालातीतं यदाकुर्यात) जब शुक्र में कालातीत हो तो (तदा) तब (मोरं समादिशेत्) घोर कष्टदायक होता है।
भावार्थ-इस प्रकार शुक्र के फलादेश को जान लेना चाहिये, जो इसके काल का अतिक्रम करता है उसको महान् कष्ट होता है।। २२९ ।। . सवक्राचारं यो वेत्ति शुक्राचारं स बुद्धिमान्।
श्रमणः स सुखं याति क्षिप्रं देशमपीडितम्॥२३०॥ (श्रमण:) जो श्रमण (शुक्राचार) शुक्र के चंचरण (वक्राचार) वक्री होने की अदि (वेत्ति) जानता है (स बुद्धिमान्) वही बुद्धिमान है (स) वह (क्षिप्रं देशमपीडितम्) शीघ्र ही अपीडित देश में विहारकर (सुखंयाति) सुख की प्राप्त करता है।
भावार्थ-जो श्रमण शुक्र के वक्र, उदय, गमन आदि को अच्छी तरह से जानकर उपद्रव रहित देशों में विहार कर सुख को प्राप्त करता है।। २३०॥ यदाऽग्निवर्णो
रविसंस्थितो वा, वैश्वानरं
__ मार्गसमाश्रितश्च। तदा भयं शंसति सोऽपि जातं, तज्जातजं
साधयितव्यमन्यतः॥२३१॥ (यदाऽग्नि वर्णो रवि संस्थितो वा) जब शुक्र अग्नि वर्ण का हो अथवा सूर्य के अंशकला पर संस्थित हो अथवा (वैश्वानरं मार्गसमाश्रितश्च) वेश्वानर वीथि में स्थित हो (तदा) तब (भय शंसति सोऽपि जातं) अग्नि से उत्पन्न भय हो तो है अथवा (तज्जातजं साधयितव्यमन्यतः) उसी प्रकार के दूसरे भय को लगा लेना चाहिये।
भावार्थ-जब शुक्र अग्नि के वर्ण का दिखे और सूर्य की अंश कला स्थित हो अथवा वैश्वानर वीथि में स्थित हो तो समझो, अग्नि भय अथवा उसी प्रकार और भय समझ लेना चाहिये ।। २३१॥
विशेष—इस अध्याय में आचार्य भगवंत शुक्र अस्त, उदय, गुरु अस्त, उदय व अन्य ग्रहाचार का प्रतिपादन करते है।
भूत भविष्य फल, वृष्टि, अवृष्टि भय, अग्नि प्रकोप, जय-पराजय रोग,