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त्रयोदशोऽध्यायः
दैवतं तु यदा बाह्यं राजा सत्कृत्य स्वं पुरम्।
प्रवेशयति तद्राजा बाह्यस्तु लभते पुरम्॥७९॥ (यदा) जब (राजा) राजा (स्वं) स्वयं (दैवत) देवता की (सत्कृत्य) पूजा करके (पुरम्) नगर में (प्रवेशयति) प्रवेश करे (तु) तो समझो (बाह्य) नगर के बाहर ही (तद्राजा) उस राजा को (पुरम् लभते) नगर की प्राप्ति (बाह्यस्तु) बाहर से ही हो जाती है।
भावार्थ-यदि राजा मन्दिर में जाकर किसी देवता की पूजा करके नगर में प्रवेश करे तो समझो उस राजा को नगर के बाहर ही नगर प्राप्त हो गया है॥७९॥
वैजयन्त्यो विवर्णास्तु बाह्ये राज्ञो यदाग्रतः।
पराजयं समाख्याति तस्मात् तां परिवर्जयेत् ।। ८० ।। यदि (वैजयन्त्यो) पताका (बाह्ये) बाहर भाग की (राज्ञो) राजाके (अग्र:) आगे (विवर्णास्तु) विवर्ण रूप दिखे तो (पराजय) राजा की पराजय को (ममाख्याति) कहा है (तस्मात्) इस कारण से (तां) उस यात्रा को (परिवर्जयेत्) छोड़ देना चाहिये।
भावार्थ-यदि बाहरी भाग की पताका राजाके आगे विवर्ण रूप दिखलाई पड़े तो समझो राजा की पराजय होगी इसलिये राजा अपनी यात्रा को रोक देवे॥ ८०॥
सर्वोथेषु प्रमत्तश्च यो भवेत् पृथिवीपतिः।
हितं न श्रृण्वतश्चापि तस्य विन्द्यात् पराजयम्॥८१।। (यो पृथिवीपतिः) जो राजा (सर्वार्थेषु) सम्पूर्ण कार्यों में (प्रमत्तश्च भवेत्) प्रमादि हाता है और (हितं न श्रृण्वतश्चापि) हित की कोई बात नहीं सुनना चाहता है, (तस्य) उसकी (पराजयम) पराजय होगी (विन्द्यात्) ऐसा जानो।
भावार्थ-जो राजा अपने सम्पूर्ण कार्यों में प्रमादि है और अपने हित की बात किसी की भी नहीं सुनना चाहता है उसकी पराजय अवश्य होगी ।। ८१ ।।
अभिद्रवन्ति यां सेनां विस्वरं मृगपक्षिणाः।
श्रमानुषशृगाला वा सा सेना वध्यते परैः ।। ८२॥ (यां) जिस (सेना) सेना का (विस्वर) विश्वर करते हुए (मृगपक्षिणः) पशु-पक्षी