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प्रथमोऽध्यायः
द्वितीयोऽध्यायः ।
उल्का लक्षण तत: प्रोवाच भगवान् दिग्वासाः श्रमणोत्तमः ।
यथावस्थासु विन्यासं द्वादशाङ्गविशारदः॥१॥ (श्रमणोत्तम) जो श्रमणों में उत्तम है (दिग्वासाः) दिगम्बर हैं (द्वादशाङ्ग विशारदः) द्वादशाङ्ग श्रुत को जानने वाले हैं (यथा) जैसा (वस्थासुविन्यासं) वस्तु का स्वरूप है (ततः) उसको (प्रोवाच) कहने लगे।
भावार्थ-तब भद्रबाहु आचार्य जो दिगम्बर हैं, श्रमणों में उत्तम हैं, द्वादशाङ्ग को जानने में प्रवीण है, उन्होंने वस्तु का जैसा स्वरूप है वैसा कहो, माने, जो द्वादशाङ्ग श्रुत में दिव्य निमित्त ज्ञान कहा है उसी प्रकार शिष्यों को कहने लगे। ५ ।।
भवद्भिर्यदहं पृष्टो निमित्तं जिनभाषितम्।
समासव्यासतः सर्वं तन्निबोध यथाविधि ॥२॥ (जिन भाषितम्) जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहा हुआ (निमित्तं) निमित्त ज्ञान को (भवद्भिर्यदह) आप के द्वारा (पृष्टो) पूछा गया (तन्निबोध) उसको तुम (यथा विधि) विधिपूर्वक (समासव्यासत:) जानो, में संक्षेप और विस्तार से कहता हूँ।
भावार्थ-जो सर्वज्ञ भगवान के द्वारा जाना गया निमित्त ज्ञान है, उसको आप ने मुझ से पूछा, सो मैं भद्रबाहु संक्षेप और विस्तार के कहता हूँ सो सुनो॥२॥
प्रकृतेर्योऽन्यथाभावो विकारः सर्वउच्यते।
एवंविकारे विज्ञेयं भयं तत्प्रकृतेः सदा ॥३॥ (प्रकृतर्यो) प्रकृति में जो (अन्यथाभावो) अन्यथा भाव होता है (विकार:) उसको विकार (सर्व उच्यते) कहते हैं, सर्व प्रकार का (एवं) इस प्रकार (विकारे) विकार (विज्ञेयं) जानना चाहिये (तत्प्रकृते:) उस प्रकृति में (सदा) सदा (भयं) भय होता है।