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भद्रबाहु संहिता
भावार्थ-जो प्रकृति का मूल स्वभाव है, उसमें अगर विकार दिख रहा है तो समझो कोई भय उत्पन्न होने वाला है।। ३ ।।
यः प्रकृतेर्विपर्यासः प्रायः संक्षेपत उत्पातः ।
क्षितिगगनदिव्यजातो यथोत्तरं गुरुतरं भवति ॥४॥ (य:) जो (प्रकृते) प्रकृति में (विपर्यास:) विपरीतता दिखती है (प्राय:) प्राय: (संक्षेपत) संक्षेप (उत्पात:) उत्पात है उसमें (क्षिति) भौमिक (गगन) आकाश और (दिव्य) दिव्य है (यथोत्तरं) उसमें भी, उत्तर रूप (गुरुतरं) वा गुरु रूप (भवति) होता है।
___ भावार्थ-जो प्रकृति में विपरीतता दिखती है तो प्राय: थोड़ा उत्पात होने वाला ऐसा समझो। वह भी तीन प्रकार का है- भौमिक, आकाशगत, और दिव्यरूप है। उसमें भी संक्षेप और बहुत होना है।। ४॥
उल्कानां प्रभवं रूपं प्रमाणं फलमाकृतिः ।
यथावत् संप्रवक्ष्यामि तन्निबोधाय तत्त्वतः ।।५।। (तत्त्वतः) यर्थाथ रूप से (उल्कानां) उल्काओं की (प्रभवं) उत्पत्ति (रूप) रूप (प्रमाणं) प्रमाण (फलं) फल (आकृति) और आकृति से (यथावत्) जैसा का तैसा (तन्निबोधाय) उसको जानने के लिये (संप्रवक्ष्यामि) कहता हूँ।
भावार्थ-उल्का यथार्थ रूप से उत्पत्ति रूप प्रमाण, फल और आकृति रूप है, उसको जैसा का तैसा जानने के लिये मैं आपको कहता हूँ अथवा आप जानो।।५।।
भौतिकानां शरीराणां, स्वर्गात् प्रच्यवतामिह ।
सम्भवश्चान्तरिक्षे तु तज्झेरूल्केति संज्ञिता॥६॥ (भौतिकानां) भौतिक (शरीराणां) शरीरों का धारण करने वाले देव (स्वर्गात्) स्वर्ग से (प्रच्यवतामिह) च्युत होते हैं (सम्भव) संभवत उनका शरीर (श्चान्तरिक्षे) आकाश में चमकता है (तज्ञ) उसको ही जानने वाले (उल्केति) उल्का (संज्ञिता) संज्ञा दी है।