________________
२६५
द्वादशोऽध्यायः
३ आढक जलकी वर्षा होती है। यदि गर्भकालमें अधिक जलकी वर्षा हो जाय तो प्रसवकालके अनगार ही जलकी वर्षा होती है ।
मेघविजयमणिने मेघगर्भ का विचार करते हुए लिखा है कि मार्गशीर्ष शुक्ला प्रतिपदाके उपरान्त जब चन्द्रमा पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र पर स्थित हो, उसी समय गर्भके लक्षण अवगत करने चाहिए। जिस नक्षत्र में मेघ गर्भ धारण करते हैं, उससे १९५ वें दिन जब वही नक्षत्र आता है तो जलकी वर्षा होती है। मार्गशीर्ष शुक्लपक्षका गर्भ तथा पौष कृष्णपक्षका गर्भ अत्यल्प वर्षा करनेवाला होता है । माघ शुक्लपक्षका गर्भ श्रावण कृष्णमें, और माघ कृष्ण का गर्भ भाद्रपद शुक्ल में जल की वर्षा करता है, फाल्गुन शुक्लका गर्भ भाद्रपद कृष्णमें, फाल्गुन कृष्णके आश्विन शुक्लमें, चैत्र शुक्लका गर्भ आश्विन कृष्णमें, चैत्र कृष्णका गर्भ कार्त्तिक शुक्लमें जलकी वर्षा करता है । सन्ध्या समय पूर्वमें आकाश मेघाच्छादित हो और ये मेघ पर्वत या हाथी के समान हों तथा अनेक प्रकारके श्वेत हाथियोंके समान दिखलाई पड़ें तो पाँच या सात रातमें अच्छी वर्षा होती है। सन्ध्या समय उत्तरमें आकाश मेघाच्छादित हो और मेघ पर्वत या हाथीके समान मालूम पड़े तो तीन दिनमें उत्तम वर्षा होती है। सन्ध्या समय पश्चिम दिशामें श्याम रंजके मेघ आच्छादित हों तो सूर्यास्तकालमें ही जलकी उत्तम वर्षा होती है। दक्षिण और आग्नेय दिशाके मेघ, जिन्होंने पौष में गर्भ धारण किया है वे अल्पवर्षा करते हैं। श्रावण मासमें ऐसे मेघों द्वारा श्रेष्ठ वर्षा होनेकी सम्भावना रहती है। आग्ने दिशामें अनेक प्रकारके आकार वाले मेघ स्थित हों तो इति, सन्तापके साथ सामान्य वर्षा करते हैं । वायव्य और ईशान दिशाके बादल शीघ्र ही जल बरसाते हैं। जिन मेघों ने किसी भी महीनेकी चतुर्थी, पञ्चमी, षष्ठी और सप्तमीको गर्भ धारण किया है, वे मेघ शीघ्र ही जलकी वर्षा करते हैं । मार्गशीर्ष कृष्ण पक्षमें मघा नक्षत्रमें मेघ गर्भ धारण करे अथवा मार्गशीर्ष कृष्णा चतुर्दशीको मेघ और बिजली दिखलाई पड़े तो आषाढ़ शुक्लपक्षमें अवश्य ही जलकी वर्षा होती है। मार्गशीर्ष कृष्ण चतुर्थी, पंचमी और षष्ठी इन तिथियोंमें आश्लेषा, मघा और पूर्वाफाल्गुनी ये नक्षत्र हों और इन्हींमें गर्भधारणकी क्रिया हुई हो तो आषाढ़ में केवल