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भद्रबाहु संहिता
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हसने शोचनं ब्रूयात् कलहं पठने तथा।
बन्धने स्थानमेवस्यात् मुक्तो देशान्तरं ब्रजेत् ।। ४६॥ यदि स्वप्न में (हसने) हँसना देखने से शोक तथा (पठने कलह) तथा पढना देखने से कलह होगा (बन्धने स्थानमेवम्गात) बन्धन देखने मे स्थान की प्राप्ति होगी (मुक्तोदेशान्तरं व्रजेत्) बन्ध से मुक्त देखने से देशान्तर गमन होता है।
___ भावार्थ-स्वप्न में हंसना देखने से शोक बढेगा, पढ़ना देखने से कलह बढेगा बन्धन से युक्त देखने से स्थान प्राप्ति होगी और बन्धन मुक्त देखने से देशान्तर गमन होता है।। ४६।।
सरांसि सरितो वृद्धान् पर्वतान् कलशान् गृहम्।
शोकातः पश्यति स्वप्ने तस्य शोकोऽभिवर्धते॥४७॥
जो मनुष्य (स्वप्ने) स्वप में (सरांसि सरितो वृद्धान्) तालाब, नदी वृद्ध (पर्वतान् कलशान् गृहम्) पर्वत, कलश, गृहों, (शोकार्त्तः पश्यति) को शोकार्त देखता है (तस्य शोकोऽभिवर्धते) उसका शोक बढ़ जाता है।
भावार्थ जो मनुष्य स्वप्न में तालाब, नदी वृद्ध पर्वत, कलश गृह को शोक करते हुऐ देखे तो उसका शोक बढ़ जाता है अर्थात् वह शोकाकुलित होता है॥४७॥
मरुस्थली तथा भ्रष्ट कान्तारं वृक्षवर्जितम्।
सरितो नीर हीनाश्च शोकार्तस्य शुभावहाः॥४८॥ (शोकार्तस्य) यदि स्वप्न में अपने को शोकाकुलित होता हुआ (मरुस्थली) मरु भूमि को (तथा) तथा (वृक्षवर्जितम् कान्तारं) वृक्ष से रहित वन (सरितो नीर हीनाश्च) नदी के पानी से रहित देखे तो (शुभावहा:) वह उसके लिये शुभप्रद है।
भावार्थयदि स्वप्न में अपने को शोकाकुलित होता हुआ मरुभूमि को तथा वृक्ष से रहित वन नदी को पानी से रहित देखे तो उसके लिये शुभप्रद है॥४८॥
आसनं शयनं यानं गृहं वस्त्रं च भूषणम् । स्वप्ने कस्मै प्रदीयन्ते सुखिनः श्रियमाप्नुयात्॥४९॥