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भद्रबाहु संहिता
वाले, निर्ग्रन्थ और जिनके शरीर की कान्ति दसों दिशाओं में फैल रही है। शिष्य
और प्रशिष्यों से आवृत्त हो रहे है । तत्त्वज्ञान का व्याख्यान करने में निपुण है। सो उस पाण्डुगिरि पर्वत पर रहते थे॥५-६॥
प्रणम्य शिरसाऽऽचार्यमूचुः शिष्यास्तदागिरम्।
सर्वेषु प्रीतमनसो दिव्यं ज्ञानं बुभुत्सवःः॥७॥ (तदागिरम्) उस पर्वत पर स्थित (शिष्याः) शिष्यों ने (सर्वेषुप्रीतमनसो) सम्पूर्ण जीवों का कल्याण करने वाला है (दिव्यं ज्ञानं) दिव्यज्ञान को (आचार्यम्) आचार्य को (शिरसा:) सिर से (प्रणम्य) नमस्कार करके (अचुः) पूछा।
भावार्थ-उस पर्वत पर रहने वाले आचार्य को शिष्यों ने सिर नवाकर नमस्कार करते हुए, जीवों का कल्याण करने वाले दिव्यज्ञान को पूछा ।। ७॥
पार्थिवानां हितार्थाय शिष्याणां हितकाम्यया।
श्रावकाणां हितार्थाय दिव्यं ज्ञानं ब्रवीहि नः॥८॥ (श्रावकाणां) श्रावकों के (हितार्थाय) हित के लिए (शिष्याणां) शिष्यों की (हितकाम्यया) हित कामना के लिए (पार्थिवानां) राजा और भिक्षुओं के लिए (हितार्थाय) हित के लिए (दिव्यं ज्ञानं) दिव्य ज्ञान को (ब्रवीहि न:) हमारे लिए कहो।
भाथि—साधु, श्रावक, राजा और शिष्यों की हित कामना के लिए भगवन आप दिव्य ज्ञान का उपदेश दीजिये॥८॥
शुभाऽशुभं समुद्भूतं श्रुत्वा राजा निमित्ततः।
विजिगीषुः स्थिरमतिः सुखं पाति महीं सदा॥९॥ (समुद्भूतं) उत्पन्न होने वाले (शुभाऽशुभं) शुभ अशुभ (निमित्तत:) निमित्तों को (श्रुत्वा) सुनकर (राजा) राजा (स्थिरमतिः) स्थिर बुद्धि होकर (सुखंपाति) सुखपूर्वक (महीं सदा) पृथ्वी का सदा (विजिगीषु:) पालन करता है।
भावार्थ-राजा शुभाशुभ निमित्तों को सुनकर सुखपूर्वक पृथ्वी का पालन करता है, क्योंकि जिस राजा को शुभाशुभ निमित्तों का ज्ञान नहीं, वह सुखपूर्वक अपने राज्य को कभी भी ठीक नहीं चला सकता है। प्रजा का पालन करने के लिए, राज्य को स्थिर रखने के लिए निमित्तों को जानना परमावश्यक है।।९।।