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प्रथमोऽध्यायः
राजभिः पूजिताः सर्वे भिक्षवो धर्मचारिणः।
विहरन्ति निरूद्विग्नास्तेन राजाभियोजिताः ॥१०॥ (सर्वे) सर्व (धर्मचारिणः) धर्म का पालन करने वाले (भिक्षुवो) साधुओं (राजभिः) राजाओं के द्वारा (पूजिता:) पूजित होते हुए (राजाभियोजित:) और राजाओं की सेवा प्राप्त करते हुए (तेन) वहाँ पर (निरुद्विमा) उपद्रव्य रहित (विहरन्तिः) विहार करते हैं।
भावार्थ----राजाओं के द्वारा पूजित होते हुए धर्म का पालन करते हुए मार्ग में सुखपूर्वक विहार करते हैं॥१०॥
पापमुत्पातिकं दृष्ट्वा ययुर्देशांश्च भिक्षवः ।
स्फीतान् जनपदांश्चैव संश्रयेयुः प्रचोदिताः ॥११॥
(भिक्षवः) साधु लोग (पापमुत्पातिक) पाप युक्त देश को (दृष्ट्वा) देखकर (देशांश्च) अन्य देशों में (ययु) चले जाते हैं। अन्यत्र (प्रचोदिताः) धन धान्यादि से पूर्ण (जनपदांश्चैव) नगरों में (स्फीतान्) अच्छी तरह से (संश्रयेयुः) विहार करते
भावार्थ-अशुभ निमित्तों को देखकर साधु लोग पाप युक्त देश होने वाला है, ऐसा जानकर, जिन देशों में या नगरों में सुभिन है उन नगरों का आश्रय लेते है। सुखपूर्वक विहार करते है॥११॥
श्रावकाः स्थिरसङ्कल्पा दिव्यज्ञानेन हेतुना।
नाश्रयेयुः परं तीर्थ यथा सर्वज्ञभाषितम् ।। १२ ।। (यथा) जैसे (दिव्यज्ञानेन) दिव्यज्ञान का (हेतुना) हेतु पाकर (स्थिरसंकल्पा) स्थिर संकल्प होते है। अन्यत्र (नाश्रयेयुः) अन्य मतों में श्रद्धा नहीं करते हैं।
भावार्थ सर्वज्ञ भगवान के द्वारा दिव्य निमित्त ज्ञान कहा हुआ है, सो ऐसा जानकर श्रावक वर्ग दृढ़ संकल्पी होते है। दृढ़ श्रद्धानी हो जाते है, और दूसरे मतों के श्रद्धानी नहीं होते।।१२।।