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पञ्चदशोऽध्यायः
एतानि पञ्च वक्राणि कुरुते यानि भार्गवः ।
अतिचारी प्रवक्ष्यामि फल यच्चास्थ किञ्चन ।। १९८ ॥ (एतानि) इस प्रकार (भार्गव:) शुक्र के (यानि) यानि (पञ्च वक्राणि) पाँच वक्र (कुरुते) होते है (यच्चास्य किंचन) अब थोड़ा (अतिचार) उसके अतिचार के (फल) फल को (प्रवक्ष्यामि) कहूंगा।
भावार्थ-इस प्रकार शुक्र के पाँच-पाँच वक्र कहे गये हैं अब मैं उनके अतिचार के फल को कहूंगा ।। १९८ ।।
यदाऽति क्रमते चार मुशना दारुणं फलम्।
तदा सृजति लोकस्य दुःखक्लेश भयावहम्॥१९९॥ (यदाऽतिक्रमते चार मुशना) यदि शुक्र अपने पति का अतिक्रम करे तो समझो (दारुणं फलम्) उसका दारुण फल होता है (तदा) तब वह शुक्र (लोकस्य) लोक को (दुःखक्लेश भयावहम्) दुःख, क्लेश, भय आदि (सृजति) सृजन करता है।
भावार्थ-यदि शुक्र अपनी गति का अतिक्रमण करता है तो उसका महान् दारुण फल होता है लोक में भय दुःख, क्लेश को उत्पन्न कर देता है॥१९९ ।।
तदाऽन्योन्यं तु राजानो ग्रामांश्च नगराणि च।
समयुक्तानि बाधन्ते नष्ट धर्म अयार्थिनः॥२०॥ इस प्रकार के शुक्र में (तदाऽन्योन्य राजानो) तब राजा लोग परस्पर (जयार्थिनः) जय के लिये (नष्ट धर्म) धर्म को नष्ट करते हुऐ (ग्रामांश्च नगराणि च) ग्राम और नगरों में (समयुक्तानि बाधन्ते) एक-दूसरे को बाधा पहुंचाते हैं।
भावार्थ-इस प्रकार के शुक्र में राजा लोग धर्म को नष्ट करते हुए ग्राम और नगर की ओर जय के लिये दौड़ पड़ते है, लड़ाई करते हैं॥२०॥
धर्मार्थकामा लुप्यन्ते जायते वर्ण संङ्करः ।
शस्त्रेण संक्षयं विन्यान्महाजनगतं तदा ।। २०१॥ (तदा) तब (धर्मार्थकामा लुप्यन्ते) धर्म, अर्थ, काम का लोपकर (जायते वर्ण संकरः) सभीवर्ण संकरी हो जाते हैं (महाजनगतं) महान पुरुषों का (शस्त्रेण संक्षयं विन्द्यात्) शस्त्रों के द्वारा क्षय होता है।