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एकविंशतितमोऽध्यायः
भावार्थ-वैवस्वत, धूममाली महर्चि विधूमित ये सब केतु दारुण होते हैं और महान् भय के उत्पादक है॥४८॥
जलदोजल केतुश्च जलरेणु समप्रभः ।
रूक्षो वा जलवान् शीघ्रं विप्राणां भयमादिशेत् ॥४९॥ (जलदो) जलद (जलकेतुश्च) जलकेतु (जलरेणु) जलरेणु (समप्रभः) समप्रभ (रूक्षो वा जलवान्) रूक्ष व जलवान् केतु (शीघ्र विप्राणां भयमादिशेत्) शीघ्र ब्राह्मणों को भय उत्पन्न करता है।
भावार्थ-जलद, जलकेतु, जलरेणु समप्रभ, रूक्ष व जलवान केतु शाघ्र ही ब्राह्मणों को भय उत्पन्न करता है॥४९ ।।
शिखी शिखण्डी विमलो विनाशी धूमशासनः।
विशिखानः शतार्चिश्च शालकेतुरलक्तकः ।। ५०॥ (शिखी) शिखी (शिखण्डी) शिखण्डी (विमलो) विमल (विनाशी) विनाशी (धूम्रशासनः) धूमायन (विशिखान:) विशिखान् (शतर्चिश्चा) शतार्चि और (शालकेतु) शालकेतु (रलक्तक:) अलक्तकः ।
भावार्थ-शिखी, शिखण्डी, विमल, विनाशी, धूमशासन:, विशिखान, शतार्चि, शालकेतु अलंकृत ॥५०॥
घृतो घृताचिश्च्य वनाश्चित्रपुष्पविदूषणः ।
विलम्बी विषमोऽग्निश्च वातकी हसनः शिखी॥५१॥ (घुतो) घृत (घृताचिश्च्य) घृतार्चि (वना:) च्यवन, ( चित्रपुष्प) चित्रपुष्प (विदूषण:) विदूषण (विलम्बो) विलम्ब (विषमो) विषम (अग्निश्च) अग्नि वातकी (हसनः) हसन (शिखी) शिखी।
भावार्थ—घृत, घृतार्चि, च्यवन, चित्रपुष्प, विदूषण, विलम्ब विषम, अग्नि, वातकी, हसन, शिखी ।। ५१॥
कुटिलः कइवखिलङ्ग कुचित्रगोऽथ निश्चयी। नामानि लिखितानी च येषां नोक्तं तु लक्षणम्॥५२॥