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सप्तमोऽध्यायः
(क्षेमं) क्षेम कुशल (च) और (सुभिक्षं) सुभिक्ष करती है (च) और (पश्चिमा) पश्चिम की (भयङ्करा) महान भयंकर होती है।
भावार्थ-उत्तर दिशामें दिखने वाली सन्ध्या राजा के विजय की सूचक है, दक्षिणदिशा में सन्ध्या हो तो राजाकी पराजय होगी ऐसा जानना चाहिये पूर्वदिशा की सन्ध्या हो तो समझो सर्वत्र क्षेमकुशल व सुभिक्ष होगा, और पश्चिमदिशा में सन्ध्या दिखे तो महान भयंकर होगा ॥७॥
आग्नेयी अग्निमाख्याति नैर्ऋती राष्ट्र नाशिनी।
वायव्या प्रावृषं हन्यात् ईशानी च शुभावहा ।। ८॥ यदि सन्ध्या (आग्नेयी) आग्नेदिशा की हो तो, (अग्निमाख्याति) अग्नि का कारण है नैर्ऋत्य दिशा की हो तो (राष्ट्र) देश का (नाशिनी) नाश करने वाली है, (वायव्या) वायव्यकोण में हो तो (प्रावृष) वर्षा का (हन्यात्) नाश करती है (च) और (ईशानी) ईशानी दिशा में हो तो (शुभावहा) शुभ है।
भावार्थ-यदि सन्ध्या आग्नेय कोण की हो तो अग्नि का भय होगा, नैरृती दिशा की हो तो समझो राष्ट्र का नाश होगा, वायव्यकोण की हो तो समझो वर्षा का नाश होगा और ईशान कोण की हो तो शुभ की सूचक है।॥ ८॥
एवं सम्पत्करायेषु नक्षश्रेष्वपि निर्दिशेत् ।
जयं सा कुरुते सन्ध्या साधकेषु समुत्थिता।। ९॥ (एवं) इस प्रकार (सम्पत्करायेषु) सम्पत्ति के लाभ में भी (नक्षत्रेष्वपि) और नक्षत्रों में भी (निर्दिशेत्) निर्देशकरना चाहिये (सन्ध्या) सन्ध्या (साधकेषु) साधक को (समुत्थिता) समुत्थित रूप में (जयं सा कुरुते) जय कराने वाली होती है।
भावार्थ-इस प्रकार की सन्ध्या सम्पत्ति के लाभ में नक्षत्रों में व्यवस्थित करना चाहिये अगर नक्षत्रों में सन्ध्याओं का दिखाई देना साधक को सब प्रकार से जय प्राप्त कराने वाली होती है।।९।।
उदयास्तमनेऽर्कस्य यान्य भ्राण्य ग्रतो भवेत्।
स प्रभाणि सरश्मीनि तानि सन्ध्या विनिर्दिशेत्॥१०॥ (अर्कस्य) सूर्यके (उदयास्तमने) उदय और अस्त के समय (यान्य) जो (भ्राण्य)