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भद्रबाहु संहिता
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है। आर्द्रा, पुष्य, मघा, धनिष्ठा, श्रवण और हस्त इन नक्षत्रों में उपर्युक्त प्रकार श्वेतवर्ण की प्रकाशमान उल्का पतित होती हुई दिखलाई पड़े तो प्राय: पुष्कल लाभ होता है। मघा, रोहिणी, तीनों उत्तरा उत्तरा फाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा और उत्तराभाद्रपद, मूल, मृगशिर और अनुराधा इन नक्षत्रों में उक्त प्रकार का उल्कापात दिखलाई पड़े तो स्त्रीलाभ और सन्तानलाभ समझना चाहिये। कार्यसिद्धि के लिये चिकनी, प्रकाशमान, श्वेतवर्णकी उल्का का रात्रि के मध्यभाग में पुनर्वसु और रोहिणी नक्षत्र में पतन होना आवश्यक माना गया है। इस प्रकार के उल्कापतन को देखने से अभीष्ट कार्यों की सिद्धि होती है। अल्प आभास से भी कार्य सफल हो जाते हैं। पीत की उत्का सामान्यतया शुभप्रद है। सन्ध्या होने के तीन घटी पीछे कृत्तिका नक्षत्र में पीतवर्णका उल्कापात दिखलाई पड़े तो मुकदमें में विजय, बड़ी-बड़ी परीक्षाओं में उत्तीर्णता एवं राज्य कर्मचारियों से मैत्री बढ़ती है। आर्द्रा, पुनर्वसु, पुव्य और श्रवण में पीतवर्ण की उल्का पत्तित होती हुई दिखलाई पड़े तो स्वजाति और स्वदेश में सम्मान बढ़ता है । मध्यारात्रि के समय उक्त प्रकार की उल्का दिखलाई पड़े तो हर्ष, मध्यरात्रि के पश्चात एक बजे रात में उक्त प्रकार का उल्कापात दिखलाई पड़े तो सामान्य पीड़ा, आर्थिक लाभ और प्रतिष्ठित व्यक्तियों से प्रशंसा प्राप्त होती है। प्रायः सभी प्रकार की उल्काओं का फल सन्ध्याकाल में चतुर्थांश, दस बजे षष्ठांश, ग्यारह बजे तृतीयांश, बारह बजे अर्ध, एक बजे अर्धाधिक और दो बजे से चार बजे रात तक किञ्चित न्यून उपलब्ध होता है । सम्पूर्ण फलादेश बारह बजे के उपरान्त और एक बजे के पहले के समय में ही घटित होता है। उल्कापात भद्रा - विष्टिकाल में हो तो विपरीत फलादेश मिलता है।
प्रतनुपुच्छा उल्का सिरभाग से गिरने पर व्यक्ति के लिए अरिष्टसूचक, मध्यभाग से गिरने पर विपत्ति सूचक और पृच्छ भाग से गिरने पर रोगसूचक मानी गई है। साँप के आकार का उल्कापात व्यक्ति के जीवन में भय, आतङ्क, रोग, शोक आदि उत्पन्न करता है । इस प्रकार का उल्कापात भरणी और आश्लेषा नक्षत्रों का घात करता हुआ दिखलाई पड़े तो महान् विपत्ति और अशान्ति मिलती है । पूर्वाफाल्गुनी, पुनर्वसु, धनिष्ठा, और मूल नक्षत्र के योग तारे को उल्का हनन करे तो युवतियों