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त्रयोदशोऽध्यायः
राजयात्रा का लक्षण व फल संचातः लगतामानि यात्रां मुख्यां जयावहाम्।
निर्ग्रन्थदर्शनं तथ्यं पार्थिवानां जयैषिणाम्॥१॥
(अथात:) अब मैं (निर्ग्रन्थदर्शनं) निर्ग्रन्थ आचार्योंके द्वारा कहा हुआ (तथ्यं) निमित्तज्ञान रूप तथ्य है उसको (मुख्या) मुखरूप से (पार्थिवानां) राजाओं की (यात्रा) यात्रा को (जयावहाम्) जय देने वाली है उसको (सम्प्रवक्ष्यामि) अच्छी तरह से कहूँगा, (जयैषिणाम्) जो सुख देने वाली है।
भावार्थ-अब मैं राजाओं की विजय यात्रा के लिये जो निर्ग्रन्थ आचार्यों ने निमित्तज्ञान रूप तथ्य को कहा है उसको अच्छी तरह से कहूँगा। जो प्रतिक्षण राजाओं की विजययात्रा में शुभाशुभ का ज्ञान करायगी।। १!
अस्तिकाय विनीताय श्रद्दधानायधीमते। - कृतज्ञाय सुभक्ताय यात्रा सिद्धयति श्रीमते॥२॥
जो राजा (धीमते) धीमान है, (श्रीमते) श्रीमान है (आस्तिकाय) आस्तिक है, (विनीताय) विनीत है (श्रद्दधानाय) श्रद्धावान है (कृतज्ञाय) कृतज्ञ है (सुभक्ताय) अच्छा भक्त है उसकी (यात्रा) यात्रा (सिद्धयति) सिद्ध होती है।
भावार्थ-जो राजा अच्छी बुद्धिवाला है लक्ष्मी सम्पन्न है, जिनेन्द्र कथित वाणीके ऊपर आस्था रखने वाला हो, अपने से बड़ो जन में विनयवान हो। देवशास्त्र गुरु पर अटल श्रद्धा रखने वाला हो, किये हुऐ उपकार को न भुलने वाला हो, जिनशासन का परम भक्त हो उस ही की यात्रा सिद्धि देने वाली होती है राजा में इतने गुण होने चाहिये, धर्मात्मा, गुणवान राजा को कभी कष्ट नहीं आते हर समय उसका धर्म रक्षा करता है॥२॥
अहं कृतं नृपं क्रूरं नास्तिकं पिशुनं शिशुम्।
कृतघ्नं चपलं भीरु श्रीर्जहात्य बुधं शठम्॥३॥ (अहं कृत) अहंकारी, (कूर) क्रूर (नास्तिक) नास्तिक (पिशुन) चुगलखोर,