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चतुर्दशोऽध्याय: ।
कामजस्य यदा भार्या या चान्याः केवलाः स्त्रियः।
कुर्वन्ति किञ्चिद् विकृतं प्रधानस्त्रीषु तद्भयम्॥८५॥ (यदा) जब (कामजस्य भार्या) कामदेव की पत्नी (या चान्या: केवला: स्त्रियः) या अन्य स्त्रियों में (किञ्चिद् विकृतं कुर्वन्ति) कोई भी विकार रूप कार्य करे हैं (प्रधान स्त्रीषु तद्भयम्) प्रधान पुरुष की स्त्रियों को भय होगा।
भावार्थ-जब कामदेव की प्रतिमा में व उनकी पत्नीयों में या अन्य किसी भी स्त्रियों में विकार दिखता है तो प्रधान पुरुष की पत्नी को भय उत्पन्न होगा ।। ८५ ।।
एवं देशे च जातौ च कुले पाखण्डि भिक्षुषु।
तम्जातिप्रतिरूपेण स्वैः स्वैर्देवैः शुभं वदेत् ॥८६॥ (एवं देशे च जातौ च) इस प्रकार अपने देश जाति (कुले) कुल के अनुसार व (पाखण्डि भिक्षुषु) अपने-अपने धर्म के अनुसार (तज्जाति प्रतिरूपेण) अपनी-अपनी जाति की प्ररूपणा के अनुसार। (स्वैः स्वैर्देवै: शुभं वदेत्) अपना-अपना शुभाशुभ ज्ञान लेना चाहिये।
भावार्थ----इस प्रकार अपने-अपने देश जाति कुल की प्रतिमा में दिखने वाला उत्पात अपने-अपने शुभाशुभ को जान लेना चाहिए।। ८६ ।
उद्गच्छमानः सविसापूर्वतो विकृतो यदा।
स्थावरस्य विनाशाय पृष्ठतो यायिनाशनः ।। ८७॥ (उद्गच्छमान:) उदय होता हुआ (सवितापूर्वतो) सूर्य पूर्व में (यदा) जब (विकृतो) विकृत दिखे तो (स्थावरस्यविनाशाय) नगरस्थ राजा के विनाश का कारण होगा, (पृष्ठतोयायि नाशन:) पीछे के सूर्य में उत्पात दिखे तो समझो आने वाले आक्रमणकारी राजा का नाश होगा।
भावार्थ- उदय होता हुआ सूर्य पूर्व में विकृत दिखे तो नगरस्थ राजा का विनाश होगा, और पृष्ठतो पीछे से सूर्य विकृत दिखे तो आने वाले आक्रमणकारी राजा का नाश करता है।। ८७।।