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| भद्रबाहु संहिता ||
पूर्वाचार्यथा प्रोक्तं दुर्गायेलादिभियंथा।
गृहीत्वा तदभिप्राय तथारिष्टं पदाम्यहम् ।। ___ इस श्लोक में दुर्गाचार्य और एलाचार्य के कथन के अनुसार अरिष्टों के वर्णन की बात कही गयी है। दुर्गाचार्य का 'रिष्ट समुच्चय' नामक एक ग्रन्थ उपलब्ध है। इस ग्रन्थ की रचना लक्ष्मीनिवास राजा के राज्य में कुम्भ नगर नामक पहाड़ी नगर के शान्तिनाथ चैत्यालय में की गई है। इसका रचनाकाल २१ जुलाई शुक्रवार ईस्वी सन् १०३२ में माना गया है। इस ग्रन्थ में २६१ गाथायें हैं, जिनका भाव इस तीसवें अध्याय में ज्यों-का-त्यों दिया गया है। अन्तर इतना ही है कि रिष्टप्समुच्चय का कथन स्यास्थित, कपबद्ध और प्रभातक है, किन्तु इस अध्याय की निरूपणशैली शिथिल, अक्रमिक और अव्यवस्थित है। विषय दोनों का समान है। इस अध्याय के अन्त में कतिपय श्लोक वाराही संहिता के वस्त्रच्छेद नामक ७१ वें अध्याय से ज्यों-के-त्यों उद्धृत हैं। केवल श्लोकों के क्रम में व्यतिक्रम कर दिया गया है। अत: यह सत्य है कि भद्रबाहु संहिता के सभी प्रकरण एक साथ नहीं लिखे गये।
समग्र भद्रबाहु संहिता में तीन खण्ड हैं। प्रथम खण्ड में दस अध्याय हैं, जिनके नाम हैं-चतुर्वर्ण नित्य क्रिया, क्षत्रिय नित्य कर्म, क्षत्रिय धर्म, कृति संग्रह, दण्डपारसव्य, स्तैन्यकर्म, स्त्रीसंग्रहण, दायभाग
और प्रायश्चित्त। इन सों अध्याय के विषय मनु स्मृति आदि ग्रन्थों के आधार से लिखे गये हैं। कतिपय पद्य तो ज्यों के त्यों मिल जाते हैं और कतिपय कुछ परिवर्तन करके ले लिये गये हैं। यह समस्त खण्ड नकल किया गया सा मालूम होता है।
दूसरे खण्ड को ज्योतिष और तीसरे को निमित्त कहा गया है। परन्तु इन दोनों अध्यायों के विषय आपस में इतने अधिक सम्बद्ध हैं कि उनका यह भेद उचित प्रतीत नहीं होता है। दूसरे खण्ड के २५ अध्याय, जिनमें उल्का, विद्युत, गन्धर्व नगर आदि निमित्तों का वर्णन किया गया है, निश्चयतः प्राचीन हैं। छब्बीसवें अध्याय में स्वप्नों का निरूपण किया गया है। इस अध्याय के आरम्भ में मंगलाचरण भी किया गया है।
नमस्कृत्य ' महावीर सुरासुरजनै तम्।
स्वप्नाच्यार्य प्रवक्ष्यामि शुभाशुभसमीरितम्॥ देव और दानवों के द्वारा नमस्कार किये गये भगवान् महावीर को नमस्कार कर शुभाशुभ से युक्त स्वप्नाध्याय का वर्णन करता हूँ।
इससे ज्ञात होता है कि यह अध्याय पूर्व के २५ अध्यायों की रचना के बाद लिखा गया है