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प्रथमोऽध्यायः
विवेचन--इस ग्रन्थ में श्रावक और मुनि दोनों के लिए उपयोगी निमित्त का विवेचन आचार्य भद्रबाहु स्वामी ने कहा है। इसके प्रथम अध्याय में ग्रन्थ में विवेच्य विषय का निर्देश किया गया है। इस ग्रन्थ में उन निमित्तों का निरूपण किया है, जिनके अवलोकन मात्र से कोई भी व्यक्ति अपने शुभाशुभ को अवगत कर सकता है। अष्टांग निमित्त ज्ञान को आचार्यों ने विज्ञान के अन्तर्गत रखा है : यत: “मोक्षे धीमा॑नमन्यत्र विज्ञानं शिल्पशास्त्रयोः" अर्थात्—निर्वाण प्राप्ति सम्बन्धी ज्ञान को ज्ञान और शिल्प तथा अन्य शास्त्र सम्बन्धी जानकारी को विज्ञान कहते हैं । यह उभय लोक की सिद्धि में प्रयोजक है, इसलिए गृहस्थों के समान मुनियों के लिए भी उपयोगी माना गया है। किसी एक निमित्त से यथार्थ से निर्णय नहीं हो सकता। निर्णय करना निमित्तों के स्वभाव, परिमाण, गुण एवं प्रकारों पर भी बहुत अंशों में निर्भर है। यहाँ प्रथम अध्याय में निरूपित वर्ण्य विषयों का संक्षिप्त परिभाषात्मक परिचय दे देना अप्रासंगिक न होगा।
उल्का-“ओषति, उष षकारस्य लत्वं क तत: टाप्' अर्थात्-उष् धातु के षकार का ल' हो जाने से क प्रत्यय कर देने पर स्त्री लिंग में उल्का शब्द बनता है। इसका शाब्दिक अर्थ है तेज:पुञ्ज, ज्वाला या लपट। तात्पर्य लिया जाता है, आकाश से पतित अग्नि | कुछ मनीषी आकाश से पतित होने वाले उल्का काण्डों को टूटा तारा के नाम से कहते हैं। ज्योतिष शास्त्र में बताया गया है कि उल्का एक उपग्रह है। इसके आनयन का प्रकार यह है कि सूर्याक्रान्त नक्षत्र से पञ्चम विद्युन्मुख, अष्टम शून्य, चतुर्दश सन्निपात, अष्टादश केतु, एकविंशति उल्का, द्वाविंशति कल्प, त्रयोविंशति वज्र और चतुर्विंशति निघात संज्ञक होता है। विद्युन्मुख, शून्य, सन्निपात, केतु, उल्का, कल्प, बज्र और निघात ये आठ उपग्रह माने जाते हैं। इनका आनयन पूर्ववत सूर्य नक्षत्र से किया जाता है। उदाहरण__वर्तमान में सूर्य कृत्तिका नक्षत्र पर है। यहाँ कृत्तिका से गणना की तो पंचम पुनर्वसु नक्षत्र विद्युन्मुख संज्ञक, अष्टम, मघा, शून्य संज्ञक, चतुर्दश विशाखा नक्षत्र सनिन्पात संज्ञक, अष्टादश पूर्वाषाढ़ केतु संज्ञक, एकविंशति धनिष्ठा उल्का संज्ञक, द्वाविंशति शतभिषा कल्प संज्ञक, त्रयोविंशति पूर्वाभाद्रपद वज्र संज्ञक और चतुर्विंशति उत्तराभाद्रपद निघात संज्ञक माना जायेगा। इन उपग्रहों का फलादेश नामानुसार है तथा विशेष आगे बतलाया जायेगा।