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पञ्चदशोऽध्यायः
वक्राण्युक्तानि सर्वाणि फलं यच्चाति चारकम् । प्रवक्ष्यामि पुनरस्तमनोदयात् ॥ २०५ ॥
चक्रचारं
(वक्रयुक्तानि सर्वाणि) जो फल सभी प्रकार वक्रों का कहा गया है ( फलंयच्चातिचारकम् ) वही अति चार में फल घटित होता है ( पुनरस्तमनोदयात्) पुनः अस्तकाल में (वक्रचारं प्रवक्ष्यामि) वक्राचार को कहूँगा ।
भावार्थ जो फल सभी प्रकार का गया है, वही फल शुक्र के अतिचारित होने पर होता है, अब मैं शुक्र के अस्तकाल में वक्राचार को कहूँगा ।। २०५ ।।
प्रविशेत् गत्या दृश्येत
वैश्वानरपथं प्राप्त: पूर्वत: षडशीतिं तदाऽहानि
यदा ।
पृष्ठतः ।। २०६ ।।
( यदा) जब शुक्र ( वैश्वानरपथं प्राप्तः, पूर्वतः प्रविशेत्) वैश्वानरपथ में पूर्व की ओर से प्रवेश करता है तो ( षडशीतिं तदाऽहानि) छियासी दिनों के पश्चात् ( गत्वा दृश्येत पृष्ठतः ) पीछे से दिखता है ।
भावार्थ — जब शुक्र वैश्वानर पथ में पूर्व की ओर से प्रवेश करता है तो वही शुक्र छियासी दिनों के बाद में पीछे से दिखेगा ॥ २०६ ॥
मृगवीथं पुनः प्राप्तः प्रवासं यदि
गच्छति ।
चतुरशीर्ति तदाऽहानि गत्वा दृश्येत पृष्ठतः ॥ २०७ ॥
( यदि ) यदि (मृगवीथं पुनः प्राप्तः ) मृगवीथि को शुक्र प्राप्त कर पुनः (प्रवासं गच्छति ) दुबारा प्राप्त होकर अस्त हो तो (चतुरशीतिं तदाऽहानि) चौरासी दिनों के पश्चात् (गत्वा दृश्येत पृष्ठतः) पीछे की ओर दिखाई देता है।
भावार्थ-यदि शुक्र मृगवीथि को शुक्र प्राप्त कर पुनः दुबारा प्राप्त होकर अस्त होता है, तो चौरासी दिनों के पश्चात् फिर पीछे की और दिखलाई पड़ता है ॥ २०७ ॥
अजवीथिमनुप्राप्तः प्रवासं यदि अशीर्ति षडहानि तु गत्वा दृश्येत
गच्छति ।
पृष्ठतः ।। २०८ ॥