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त्रयोदशोऽध्यायः
भावार्थ — जब देवता और असुरों का युद्ध हुआ था तब देवताओं ने इन निमित्ततों को प्रमाणिक माना था इसलिये वे निमित्त दो प्रकार के कहे गये है ।। २३ ॥
ज्ञानविज्ञानयुक्तोऽपि
लक्षणैर्येविवर्जितः ।
न कार्यसाधको ज्ञेयो यथा चक्रो रथस्तथा ॥ २४ ॥
पुरोहितादि (ज्ञानविज्ञानयुक्तोऽपि ) ज्ञानविज्ञान से युक्त होने पर भी (लक्षणैयविवर्जित) उपर्युक्त लक्षणों से अगर रहित है ( कार्यसाधको न ज्ञेयो) वह कार्य सिद्धि करने वाला नहीं हो सकता ऐसा जानना चाहिये, (यथा ) जैसे (चक्रो रथस्तथा) पहिये के बिना रथ ।
भावार्थ — पुरोहितादि अगर ज्ञानविज्ञान से युक्त होने पर भी उपर्युक्त लक्षण से रहित है तो वह राजकार्य कभी भी सिद्धि नहीं कर सकता जैसे— पहिये के बिना रथ नहीं चल सकता ।। २४ ।।
लक्षणसम्पन्नो
यस्तु
ज्ञानने च समायुतः । स कार्यसाधनो ज्ञेयो यथा सर्वाङ्गिको रथः ॥ २५ ॥
(यस्तु लक्षणसम्पन्नो) उपर्युक्त लक्षणों से युक्त (च) और (ज्ञानेन समायुक्तः ) ज्ञान से युक्त (स कार्यसाधनो ज्ञेयो ) वो ही पुरोहितादि कार्य सिद्धि कर सकता है ऐसा जानना चाहिये, (यथासर्वाङ्गिको रथ: ) जैसे सर्व आंगोपान से युक्त रथ ।
भावार्थ — उपर्युक्त लक्षणों से युक्त पुरोहितादि राजाके कार्य को सिद्धि प्राप्त करा सकता है, ज्ञानी ही पुरोहितादि सभी सिद्धि का साधन है जैसे सम्पूर्ण सांगोपांग से सहित रथ ॥ २५ ॥
अल्पेनापि तु ज्ञानेन कर्मज्ञो लक्षणान्वितः । तद् विन्द्यात् सर्वमतिमान् राजकर्मसुसिद्धये ॥ २६ ॥ (अल्पनापि तु ज्ञानेन ) थोड़ा ज्ञानी होने पर भी (कर्मज्ञो) कर्मठ (लक्षणान्वितः ) और उपर्युक्त लक्षणों से युक्त हो (तु) तो (तद् विन्द्यात्) ऐसा जानो ( सर्वमतिमान् ) वह सर्वमतिमान है और ( राजकर्मसु सिद्धये) वही राजकार्य की सिद्धि कर सकता है।