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| भद्रबाहु संहिता |
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शुष्कं काष्ठं तृणं वाऽपि यदा संदंशते हयः।
हेषन्ते सूर्यमुदीक्ष्य तदाऽग्नि भयमादिशेत्॥१६७ ॥ (यदाहयः) जब घोड़े (सूर्यमुदीक्ष्य) सूर्य की तरफ मुँह करके (शुष्कं काष्ठं तृणंवाऽपि) सुखे हुऐ तृण, घास और भी लकड़ी (संदंशते) मुँह में लेकर (हेषन्ते) हँसते हों तो (तदाऽग्नि भयमादिशेत्) तब अग्निभय होगा ऐसा कहे।
भावार्थ- जब घोड़े सूर्य की तरफ मुँह कर सूखे हुऐ घास, लकड़ी तृण को मुँह में लेकर हंसे तो समझो अग्नि भय होगा ।। १६७।।
यदा शेवालजले वाऽपि मग्नं कृत्वा मुखं हयाः।
हेषन्ते विकृता यत्र तदाप्यग्नि भयं भवेत् ।। १६८॥ (यदा हयाः) जब घोड़े (शेवालजले वाऽपि मुखंमग्नंकृत्वा) शेवाल से सहित जल मुँह को मग्न करके (विकृतायत्रहेषन्ते) जहाँ पर विकृत होकर हँसते हैं (तदा) तब (अग्निभयं भवेत्) अग्नि का भय होगा।
भावार्थ-जब घोड़े शेवाल से सहित जल में मुख करके घोड़े विकृत रूप हँसे तो अग्नि का भय होगा॥१६८॥
उल्कासमाना हेषन्ते संद्दश्य दशनान् हयाः।
संग्रामेविजयं क्षेमं भर्तुः पुष्टिं विनिर्दिशेत् ॥१६९॥ (हयाः) घोड़े (उल्कासमाना) उल्का के समान (दशनान) दांतो को (संदृश्य) दिखाते हुऐ (हेषन्ते) हँसते है तो (संग्रामे) युद्ध में (विजय) विजय (क्षेमं) क्षेम (भर्तुः पुष्टिं विनिर्दिशेत) और पुष्टि को कहे।
भावार्थ-यदि घोड़े उल्का के समान अपने दाँतो को दिखाते हुऐ हँसे तो समझो युद्ध में विजय, क्षेम कुशल पुष्टि होगी ऐसा कहे ।। १६९ ।।
प्रसारयित्वा ग्रीवां च स्तम्भयित्वा च वाजिनाम्।
हेषन्ते विजयं ब्रूयात्संग्रामे नात्र संशयः॥ १७०।। यदि (गीवां प्रसारयित्वा) अपनी ग्रीवा प्रसार करके (वाजिनाम्) घोड़े (स्तम्भयित्वा च) स्तम्भित होकर (हेषन्ते) हँसते है तो (संग्रामे विजयं ब्रूयात्) संग्राम में विजय होगी ऐसा कहे (नात्र संशयः) इसमें सन्देह नहीं है।