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चतुर्थोऽध्यायः ।
प्रकार के पुँच्छ वाले तारे को आच्छादित करता है तो आक्रमणकारी राजा की यात्रा कभी सफल नहीं होती है, याने उसको हार खाकर जाना पड़ेगा।।३६ ।।
ददा तु ग्रहनक्षत्रे परिवेषो रूणद्धि हि।
आभावस्तस्य देशस्य विज्ञेयः पर्युपस्थितः ॥ ३७॥ (परिवेषो) परिवेष (यदि) यदि (ग्रह नक्षत्रे) ग्रह और नक्षत्र को (ददा तु) देता हुआ (रूणद्धि हि) आच्छादित करे तो (तस्य) उस (देशस्य) देश का (अभाव:) अभाव हो जायेगा, (पयुपस्थित) ऐसा पूर्व निमित्तज्ञों ने (विज्ञेयः) कहा है ऐसा जानना चाहिये।
भावार्थ-परिवेष यदि ग्रह और नक्षत्र को आच्छादित करते तो उस देश का पूरे का पूरा अभाव हो जायगा, उसे देश में कोई नहीं रहेगा ।। ३७॥
अयो याऽत्रावरुद्ध्यन्ते नक्षत्रं चंद्रमा ग्रहः।
त्र्यहाद् वा जायते वर्ष मासाद् वा जायते भयम् ।। ३८॥ (त्रीणि) तीनों की (याऽत्रावरुद्ध्यन्ते) यात्रा का अवरुद्ध करता है (नक्षत्र) नक्षत्र, (चंद्रमा) चन्दमा, (ग्रह) ग्रहों का तो (त्र्यहाद्) तीन दिन में (जायते वर्ष) वर्षा होगी (वा) अथवा (मासाद्) एक महीने में (भयं) भय (जायते) उत्पन्न होगा।
भावार्थ-ग्रहों को चन्द्रमा को और नक्षत्रों को इन तीनों को यदि परिवेष अवरुद्ध करता है तो समझो तीन दिन में वर्षा होगी, और एक महीने में अवश्य भय उत्पन्न होगा ।। ३८।।
उल्कावत् साधनं ज्ञेयं परिवेषेषु तत्त्वतः ।
लक्षणं सम्प्रवक्ष्यामि विद्युतां तन्निबोधत ।। ३९ ।। (उल्कावत्) उल्का के समान ही (साधनं) फल (परिवेषेषु) परिवषो का (तत्त्वत:) तत्त्व (ज्ञेयं) जानना चाहिये। (विद्युतां) अब विद्युत् का (लक्षणं) लक्षण (सम्प्रवक्ष्यामि) कहूँगा। (तन्निबोधत) उस का ज्ञान करना चाहिये।
भावार्थ- उल्का के समान ही परिवेषों का फल जानना चाहिये। अब मैं विद्युत का ज्ञान कराता हूँ आप उसको जानो॥३९ ।।