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भद्रबाहु संहिता !
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नक्षत्रमें पानी बरसने से होती है। परस्परमें कलह और विसंवाद भी हाते हैं। मृगाशर नक्षत्रमें प्रथम वर्षा होने से अवश्य सुभिक्ष होता है। फसल भी अच्छी उत्पन्न होती है। यदि सूर्य नक्षत्र मृगशिर हो तो खण्डवृष्टि होती है तथा कृषिमें अनेक प्रकार के रोग भी लगते हैं। इस नक्षत्रकी वर्षा व्यापारके लिए भी उत्तम नहीं है। राजा या प्रशासकको भी कष्ट होते हैं। मन्त्रीपुत्र या किसी बड़े अधिकारीकी मृत्यु भी दो महीनेमें होती है। आर्द्रा नक्षत्रमें प्रथम जलकी वर्षा हो तो खण्डवृष्टिका योग रहता है, फसल साधारणतया आधी उत्पन्न होती है। चीनी, गुड़ और मधुका भाव सस्ता रहता है। श्वेत रंगके पदार्थों में कुछ मँहगी आती है। पुनर्वसु नक्षत्रमें प्रथम वर्षा हो तो एक महीने तक लगातार जल बरसता है। फसल अच्छी नहीं होती तथा बोया गया बीज भी मारा जाता है। आश्विन और कार्तिकमें वर्षाका अभाव रहता है और सभी वस्तुएँ प्रायः महँगी होती हैं, लोगोंमें धर्माचरणकी प्रवृत्ति होती है, यद्यपि रोग-व्याधियोंके लिए उक्त प्रकार का वर्ष अत्यन्त अनिष्टकर होता है, सर्वत्र अशान्ति और असन्तोष दिखलाई पड़ता है; फिर साधारण जनताका ध्यान धर्मसाधन की ओर अवश्य जाता है। पुष्य नक्षत्रमें प्रथम जल वर्षा होने पर समयानुकूल जलकी वर्षा एक वर्ष तक होती रहती है, कृषि बहुत उत्तम होतीहै, खाद्यान्नों के सिवाय फलों और मेवोंकी अधिक उत्पत्ति होती है। प्रायः समस्त वस्तुओंके भाव गिरते हैं। जनतामें पूर्णतया शान्ति रहती है, प्रशासक वर्गकी समृद्धि बढ़ती है। जनसाधारणमें परस्पर विश्वास और सहयोगकी भावनाका विकास होता है। यदि आश्लेषा नक्षत्रमें प्रथम जलकी वर्षा हो तो वर्षा उत्तम नहीं होती, फसलकी हानि होती है, जनतामें असन्तोष और अशान्ति फैलती है। सर्वत्र अनाजकी कमी होनेसे हाहाकार व्याप्त हो जाता है। अग्निभय और शास्त्रभयका आतङ्क उस प्रदेशमें अधिक रहता है। चोरी और लूटका व्यापार अधिक बढ़ता है। दैन्यता और निराशाका संचार होने से राष्ट्रमें अनेक प्रकारके दोष प्रविष्ट होते हैं। यदि इस नक्षत्रमें वर्षाके साथ ओले भी गिरें तो जिस प्रदेशमें इस प्रकारकी वर्षा हुई है, उस प्रेदश के लिए अत्यन्त भयकारक समझना चाहिए । उक्त प्रदेश में प्लेग, हैजा जैसी संक्रामक बीमारियाँ अधिक बढ़ती हैं, जनसंख्या घट जाती है। जनता सब तरहसे कष्ट उठाती है। आश्लेषा नक्षत्रमें तेज वायुके साथ वर्षा हो एक वर्ष पर्यन्त उक्त प्रदेशों को कष्ट