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चतुर्दशोऽध्यायः
लवणा:) लवण से युक्त (स्निग्धा:) स्निग्ध ( पीतपुष्पफलाश्च) पीले पुष्प और फलों से युक्त दिखे तो ( वैश्यानां प्रतिपुद्गलाः ) वैश्यों के लिये उत्पात का कारण होता
है ।
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भावार्थ - यदि दक्षिण दिशा में वृक्ष, आम्ल, खारे, स्निग्ध, पीले पुष्पों से युक्त और फलों से सहित दिखे तो वैश्यों के लिये उत्पात का कारण बनता है ॥ २६ ॥
कटुकण्टकिनो रूक्षाः कृष्णपुष्पफलाश्च ये । वारुण्यां दिशि वृक्षाः स्युः शूद्राणां प्रतिपुद्गलाः ॥ २७ ॥
( यदि वारुण्यां दिशिवृक्षाः ) यदि पश्चिमदिशा के वृक्षों में (कटु) कडवा, ( कण्टकिनो) कण्टक सहित ( रूक्षा:) रूक्ष ( कृष्ण पुष्पफलाश्च ये) और जो काले पुष्प फल दिखे तो (शूद्रणां प्रतिपुद्गलाः स्युः) शूद्रों के लिये उपद्रवकारी होते हैं। भावार्थ जो पश्चिम दिशा के वृक्ष कड़वे काण्टों से सहित, रूक्ष हो और काले पुष्प फलों से सहित हो तो समझो शूद्रों को उपद्रव होगा ॥ २७ ॥
महान्तश्चतुरस्रश्च गाढाश्चापि विशेषिणः । वनमध्येस्थिताः सन्तः स्थावरा: प्रतिपुद्गलाः ॥ २८ ॥
यदि वृक्ष (वनमध्येस्थिताः) वन में स्थित हों (महान्तश्चतुरस्त्राश्च) महान् चारों तरफ से गाढ ( श्चापि विशेषिणः) और भी विशेष रीति से हैं (सन्त:) है तो (स्थावराः प्रतिपुद्गलाः) स्थावर जीवों के लिये उपद्रवकारी हैं।
भावार्थ — जो वृक्ष, विशेष रीति से वन के अन्दर स्थित हो, गाढ़ हो चौकोर हो तो वहाँ के निवासियों को उपद्रव करते हैं ॥ २८ ॥
हस्वाश्च तरवो येऽन्ये अन्त्ये जाता वनस्य च । अचिरोद्भवकारा ये यायिनां प्रतिपुद्गलाः ।। २९ ।
( ये ) जो (तरवो) वृक्ष ( ह्रस्वाश्च) छोटे हैं (येऽन्ये अन्त्ये जातावनस्य च ) अन्य वन में अन्त में उत्पन्न हुए हैं (अचिरोद्भवकारा) शीघ्र ही उत्पन्न होने के आकार में हैं तो (यायिनां प्रतिपुद्गलाः) आने वाले प्रतिशत्रु के लिये उपद्रव करने वाले हैं।