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प्रयोदशोऽध्यायः
भावार्थ-युद्ध के लिये प्रयाण हो रहा हो, और मार्ग में कही हवन हो रहा हो, उस हवन से अग्नि के स्फुलिंग जलते हुए आगे या पीछे या बगल में पड़ते हुए दिखाई पड़े तो समझो सेना की अवश्य पराजय होगी।। ५४॥
यदि धूमाभिभूता स्याद् वो भस्म निपातयेत् ।
अहूतः कम्पते वाऽऽज्यं न सा यात्रा विधीयते॥५५॥ (यदि) यदि (धूमाभिभूतास्याद्) धुएँ से अभिभूत अग्नि हो, (वातो भस्म निपातयेत्) और वायु से उसकी राख उसी में गिरती हो (अहूत: कम्पते वाऽऽज्य) अथवा आहुति देते समय घी कम्पित हो रहा हो तो, (न सा यात्रा विधीयते) उसमें यात्रा नहीं करनी चाहिये।
भावार्थ-यदि धूएँ से सहित अग्नि हो उसकी राख हवा से इधर-उधर उड़ती हुई दिखे, अथवा उसीमें पड़े और आहुति देते समय धी कम्पित होता हुआ दिखे समझो राजा का व सेना का अनिष्ट होगा ऐसे समय में राजा को विजय यात्रा नहीं करनी चाहिये।। ५५ ॥
राजा परिजनो वाऽपि कुप्यते मन्त्रशासने।
होतुराज्यविलोपे च तस्यैव वधमादिशेत्॥५६॥ (मन्त्र शासने) मन्त्री के शासन से (राजा परिजनो वाऽपि कुप्यते) राजा और परिजन कुपित होते हैं (होतुराज्यविलोपे च) अथवा हवन का घी नष्ट हो जाय तो (तस्यैव वधमादिशेत्) उसका वध होगा ऐसा समझो।
भावार्थ-मन्त्री के अनुशासन से राजा व उसके परिजन क्रोधित होते है और हवन घी अकस्मात् नष्ट हो जाय तो राजा को अपनी यात्रा रोक देनी चाहिये, नहीं तो राजा का वध हो जायगा, यह निमित्त राजा के मरण की सूचना करता है।। ५६ ।।
यद्याज्यभाजने केशा भस्मास्थीनि पुनः पुनः ।
सेनाने हूयमानस्य मरणं तत्र निर्दिशेत् ।। ५७॥ (यद्याज्य) यदि घी के (भाजने) पात्र में (केशा) केश (भस्म) राख, (अस्थीनि)