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सप्तमोऽध्यायः
सन्थ्याओं का लक्षण अथातः सम्प्रवक्ष्यामि सन्ध्यानां लक्षणं ततः।
प्रशस्तमप्रशस्तं च यथा तत्त्वं निबोधत ॥१॥ (अथात:) अथ (सन्ध्यानां) सन्ध्याओं के (लक्षणं) लक्षण को (सम्प्रवक्ष्यामि) में कहूँगा (तत:) वह (प्रशस्तं) प्रशस्त (च) और (अप्रशस्तं) अप्रशस्त होते हैं (यथा) उसका स्वरूप (स्व) निमितशशास्त्रों के अनुसार (निबोधत) जानना चाहिये।
भावार्थ-अब में सन्ध्याओं के लक्षण को कहूँगा, वो दो प्रकार की होती है प्रशस्त और अप्रशस्त, इनका लक्षण निमित्त शास्त्रके अनुसार जान लेना चाहिये ।। १ ।।
उद्गच्छमाने चादित्ये यदासन्ध्या विराजते।
नागराणां जयं विन्द्यादस्तं गच्छति यायिनाम् ।। २॥ (उद्गच्छमाने) उदय होते हुऐ (चादित्ये) सूर्यकी (यदा) जब (सन्ध्या) सन्ध्या (विराजते) विराजमान होती है तो (नागराणां) नगरवासी राजा की (जयं) जय (विन्द्याद्) समझो (अस्तं) यदि सूर्यके अस्तमान (गच्छति) हो जाता है तो (यायिनाम्) यायि की विजय होगी।
भावार्थ- उदय होते हुऐ सूर्य के समय सन्ध्या हो तो नगरस्थ राजा की विजय होगी, यदि अस्त होते हुऐ सूर्य के समय सन्ध्या हो तो आने वाले आक्रमणकारी राजा की विजय होगी॥२॥
उद्गच्छमाने चादित्ये शुक्ला सन्ध्या यदा भवेत्।
उत्तरेण गता सौम्या ब्राह्मणानां जयं विदुः ॥३॥ (यदा) जब (उद्गच्छमाने चादित्ये) उगते हुऐ सूर्य की (सन्ध्या) सन्ध्या (शुक्ला) सफेद (भवेत्) होती है (सौम्या) सौम्य और (उत्तरेणगता) उत्तर में हो तो (ब्राह्मणानां) ब्राह्मणों की (जयं) जयको (विदुः) जानो।
भावार्थ-यदि उगते हुऐ सूर्य की सन्ध्या सफेद हो सौम्य हो और उत्तरदिशामें हो तो समझो ब्राह्मणों की विजय होगी॥३।।