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भद्रबाहु संहिता
एकादशे प भौमो द्वादशे दशमेऽपि वा। तच्छोष मुखमुच्यते ॥ १४ ॥
निवर्तेत
तदा
वक्रं
( यदा) जब ( भौमो ) मंगल ( एकादशे दशमेऽपि वा द्वादशे ) दसवें, ग्यारहवें व बारहवें नक्षत्र में (निवर्तेत) लौटता है (तदा) तब (वक्रे) उस वक्र को ( तच्छोषमुख मुच्यते) शोष मुख वक्र कहते हैं।
भावार्थ — जब मंगल दसवें या ग्यारहवें व बारहवें नक्षत्रमें लौटता है तो उस वक्र को शोष मुख वक्र कहते हैं ।। १४ ।
अपोऽन्तरिक्षात् पतितं दूषयति तदा
रसान् । ते सृजन्ति रसान् दुष्टान् नानाव्यार्थीस्तु भूतजान् ॥ १५ ॥ इस प्रकार के शोष मुख वक्र में ( अपोऽन्तरिक्षात् पतितं) आकाश से पानी की वर्षा होती है, ( दूषयति तदा रसान् ) तब सारे रस दूषित हो जाते हैं (ते सृजति रसान् दुष्टान् ) वो दुष्ट रसों को उत्पन्न करता है ( नानाव्याधींस्तु भूतजानू ) सब जीवों को नाना प्रकार की व्याधियाँ उत्पन्न होती है।
भावार्थ - इस प्रकार के शोष मुख वक्र में आकाश से बहुत वर्षा गिरने से सब रस दूषित हो जाते है अनेक दूषित रस उत्पन्न हो जाते हैं सब जीवों को नाना प्रकार की व्याधियाँ प्रकट हो जाती है ॥ १५॥
शुष्यन्ति वै तडागानि सरांसि बीजं न रोहते तत्र जलमध्येऽपि
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सरितस्तथा ।
वापितम् ॥ १६ ॥
( तडागानि सरांसि वै ) तालाब, सरोवर (सरितस्तथा) नदियाँ सब (शुष्यन्ति ) सूख जाते हैं ( तत्र ) इसलिये वहाँ पर ( बीजनं रोहते) बीजों का वपन नहीं करना चाहिये क्योंकि ( जलमध्येऽपि वापितम् ) जल में भी वपन करने से पैदा नहीं होते
हैं ।
भावार्थ — और भी तालाब, सरोवर, नदियाँ सब सूख जाती है, इस प्रकार की स्थिति में जलमें भी बीज न डाले क्योंकि यह वक्र बीजों को नहीं होने देता ॥ १६ ॥