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एकोनविंशतितमोऽध्यायः
त्रयोदशेऽपि नक्षत्रे यदि वाऽपि चतुर्दशे । aa मदा श्रीमस्तद् वक्रं व्यालमुच्यते ॥ १७ ॥ पतङ्गाः सविषाः कीटाः सर्पा जायन्ति तामसाः । फलं न वध्यते पुष्पे वीजमुप्तं न रोहति ॥ १८ ॥
(यदि) जब (भौमः ) मंगल (त्रयोदशेऽपि ) तेरहवें व (वाऽपि चतुर्दशे) चौदहवें ( नक्षत्रे ) नक्षत्र में (निवर्तेत ) छूटता है तो (तदा) तब (तद्वक्रं ) उस वक्रको ( व्यालमुच्यते) व्याल कहते हैं।
( पता : सविषाः कीटाः ) व्याल वक्र में पतना, विषैले जन्तु कीड़े ( सर्पा जायन्ति तामसाः) तामस सर्पों की उत्पत्ति होती है ( फलं न बध्यते पुष्पे ) पुष्पों पर फल नहीं लगते (बीजमुप्तं न रोहति) और बीज जमीन में अंकुरित नहीं होते । भावार्थ — जब मंगल तेरहवें व चौदहवें नक्षत्र पर आकर छूट जाता है, तब उस वक्र को व्याल वक्र कहते है। ऐसे वक्र में पतन, विषैले जन्तु कीड़े, तामसी सर्पों की उत्पत्ति होगी, फल, पुष्प पर नहीं लगते और पृथ्वी में बीज बोने पर भी अंकुरित नहीं होते है ॥ १७-१८ ॥
वा
यदा पञ्चदशे ऋक्षे षोडशे निवर्तते । लोहितो लोहितं वक्रं कुरुते गुणजं देश स्नेहाम्भसां लोपो राज्यभेदश्च सङ्ग्रामाचात्र वर्तन्ते मांस शोणित
( यदा) जब ( लोहितं) मंगल ( पञ्चदशे ऋक्षे षोडशे वा) पन्द्रहवें या सोलहवें नक्षत्र पर से ( निवर्तते ) निवृत होता है तो ( तदा) तब उस वक्र को ( लोहितो ) लोहित (वक्रं ) वक्र कहते हैं (गुणजंकुरुते ) गुण उत्पन्न करता है। लोहित वक्रं में ( देशस्नेहाम्भसां लोपं ) देश स्नेह, जल का लोप ( राज्यभेदश्च जायते) राज्य भेद और (मांस शोणितकर्दमाः) मांस रक्त का कीचड़ करने वाला (सङ्ग्रामाञ्चात्र वर्तन्ते) वहाँ पर युद्ध होता है।
भावार्थ- -जब मंगल पन्द्रहवें या सोलहवें नक्षत्र से छूटता है, तो उसको लोहित वक्र कहते हैं, और ऐसा वक्र देश स्नेह करता है, जल का लोप करता
तदा ॥ १९ ॥ जायते । कर्दमाः ॥ २० ॥