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भद्रबाहु संहिता ।
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कक्षः कुक्षिश्च वक्षश्च घ्राणस्कन्धौ ललाटकम्।
सर्वभूतेषु निर्दिष्टं पडुन्नतशुभं विदुः ।। कक्ष (काख), कुशि, (स) लाती, नाक, मागो और ललाट, इन छ: अंगों का ऊँचा होना किसी भी जीव के लिये शुभ हैं।
पाणिपादतले रक्ते नेत्रान्तानि नखानि च। तालु जिलाधरोष्ठौ च सदा रक्तं प्रशस्यते॥
हथेली, चरणों के नीचे का भाग, नेत्रों के कोने, नख, तालु, जीभ और निचले होंठ इन सात अंगों का सदा लाल रहना उत्तम है।
नाभिस्वरं सत्वमिति प्रशस्तं गम्भीरमन्ते त्रितयं नराणाम्।
उरो ललाटो वदनं च पुंसांविस्तीर्णमेतत् त्रितयं प्रशस्तम् ।। नाभि, स्वर और सत्त्व ये तीन यदि पुरुषों के गम्भीर हों तो प्रशस्त कहे जाते हैं। इसी प्रकार छाती, ललाट और मुख का चौड़ा होना शुभ होता है।
वर्णात् परतरं स्नेहं स्नेहात्पतरं स्वरम् ।
स्वरात् परतरं सत्त्वं सर्व सत्त्वे प्रतिष्ठितम् ॥
मनुष्य की देह में, रंग से उत्तम स्निग्धता (चिकनाई, आब) है, स्निग्धता से भी उत्तम स्वर है और स्वर (आवाज़) से भी उत्तम सत्त्व हैं। (सत्त्व वह वस्तु है जिसके कारण मनुष्य की सत्ता है, जिसके न रहने से मनुष्यत्व ही नहीं रहता) इसीलिये सत्त्व ही सबका प्रतिष्ठा-स्थान हैं।
नेत्रतेजोऽतिरक्तं च नातिपिच्छलपिंगलम्। दीर्घबाहुनिभैश्वयं विस्तीर्ण सुन्दरं मुखम्॥
आँखों में तेज और गाढ़ी लालिमा का होना तथा बहुत चिकनाई और पिंगल वर्ण (माँजर-पन) का न होना, भुजाओं का दीर्घ होना, और मुंह का विशाल और सुन्दर होना, ऐश्वर्य को प्राप्त करते हैं।