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एकविंशतितमोऽध्यायः
भावार्थ-शकुनि नामक ग्रह पीडा में शुक और पक्षी चिरजीवी वृक्षों का पीडाकारक फल कहना चाहिये ॥२६॥
शिंशुमारो यदा केतुरुपागत्य प्रधूमयेत्।
तदा जलचरं तोयं वृद्धवक्षांश्च हिंसति॥२७॥ (यदा) जब (शिशुमारो) शिंशुमार नामक जन्तु को (केतु) केतु (रुपागत्यप्रधूमयेत्) धूमित करता है (तदा) तब (जलचर तोयं) जलचर जन्तु जल और (वृद्धवक्षांश्च हिंसति) वृद्ध वृक्षोंका घात होता है।
भावार्थ-जब शिशुमार नामक जन्तु को केतु धूमित करता है तब जलचर जन्तु और जल वृद्ध वृक्ष की हिंसा करता है॥ २७॥
सप्तर्षीणामन्यतमं यदा केतुः प्रधूमयेत्।
तदा सर्व भयं विन्धात् ब्राह्मणानां न संशयः॥२८॥ (यदा) जब (केतुः) केतु (सप्तर्षीणामन्यतमं) सप्तऋषियों में से किसी एक को (प्रधूमयेत्) प्रधूमित करे तो (तदा) तब (ब्राह्मणानां) ब्राह्मणों को (सर्व भयं विन्द्यात्) सभी प्रकार का भय होता है। ऐसा समझना चाहिये (न संशयः) इसमें कोई सन्देह नहीं है।
भावार्थ-जब केतु सप्तऋषियों में से किसी एक को भी प्रधूमित करे तब ब्राह्मणों को सभी प्रकार का भय होता है, इसमें कोई सन्देह नहीं है ऐसा समझना चाहिये ॥ २८॥
वृहस्पति यदा हन्याद् धूमकेतु रथार्चिभिः।
वेदविद्याविदो वृद्धान् नृपस्तिज्ज्ञांश्च हिंसति॥२९॥ (यदा) जब (धूमकेतु) धूमकेतु (रथार्चिभिः) अपमी तेज किरणों द्वारा (बृहस्पति हन्याद्) गुरु का हनन करे तब (वेद विद्याविदो वृद्धान्) वेद विद्या के जानकार वृद्ध पुरुषों को व (नृपस्तिज्ज्ञांश्च हिंसति) राजाओं की हिंसा करता है ऐसा समझो।
भावार्थ-जब धूमकेतु अपनी किरणों द्वारा गुरु का घात करे तो समझो विद्या के जानकार ऐसे वृद्ध पुरुषों का व राजाओं का घात करता है ।। २९ ।।