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तृतीयोऽध्यायः
चतुर्थोऽध्यायः
परिवेषवर्णन अथातः सम्प्रवक्ष्यामि परिवेषान् यथाक्रमम्।
प्रशस्तान प्रशस्तांश्च यथा वदनु पूर्वतः॥१॥ (अथात:) अब (यथाक्रमम्) यथा क्रमसे (परिवेषान्) परिवेषोंका स्वरूप (सम्प्रवक्ष्यामि) कहूँगा वो (प्रशस्तानप्रशस्तांश्च) प्रशस्तरूप से और अप्रशस्तरूप से कहूँगा (यथा) जो (वदनुपूर्वतः) पूर्व के अनुसार कहा गया है।
भावार्थ-अब मैं यथाक्रम से परिवेषोंका स्वरूप कहूँगा, वो परिवेश प्रशस्त रूप और अप्रशस्त रूप है जैसा पहले कहा गया है वैसा ही कहूँगा ॥१॥
पञ्चप्रकारा विज्ञेयाः पञ्चवर्णाश्च भौतिकाः।
ग्रहनक्षत्रयोः कालं परिवेषाः समुत्थिताः ॥२॥ (पञ्चप्रकारा विज्ञेयाः) वह परिवेष पाँच प्रकार के जानना चाहिये (पञ्चवर्णाश्च) पाँच रंगों के और (भौतिका:) भौतिकरूप, (ग्रहनक्षत्रयोः) ग्रह, नक्षत्र (कालं) कालको पाकर (परिवेषाः) परिवेष (समुत्थिता) होते हैं परिणमन करते हैं।
भावार्थ-वे परिवेष पाँच प्रकार के होते हैं, पाँच रंगों के होते है और भौतिक होते हैं, ग्रह, नक्षत्र, काल को पाकर परिवेष होते हैं।॥ २॥
रूक्षाः, खण्डाश्च, वामाश्च, क्रव्यादायुधसत्रिभाः।
अप्रशस्ताः प्रकीर्त्यन्ते विपरीतगुणान्विताः ॥३॥ (रूक्षाः) रूक्ष, (खण्ड) खण्ड, (वामाश्च) वामरूप, (क्रव्यादा) टेढ़ेरूप, (आयुधसन्निभाः) आयुध रूप, (अप्रशस्ताः ) और ये सब अप्रशस्त होते हैं (विपरीत) विपरीत (गुणान्विताः) गुणों से सहित (प्रकीर्त्यन्ते) कहे गये हैं।
भावार्थ-ये परिवेष, रूक्ष, खण्डरूप, वामरूप व नाना प्रकार के आयुध