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पंचमोऽध्यायः
विद्युतलक्षण अथातः संप्रवक्ष्यामि विद्युतां नामविस्तरम्।
प्रशस्ता वाऽप्रशस्ता च यथा वदनुपूर्वतः॥१॥ (अथात:) अब मैं (विद्युतां) विद्युतों का (नामविस्तरम्) विस्तार पूर्वक नाम (संप्रवक्ष्यामि) कहूँगा, वो विद्युत (प्रशस्ता) प्रशस्त (वा) वा (च) और (अप्रशस्ता) अप्रशस्त होते हैं (यथा) जैसा (वद्नुपूर्वत:) पूर्व में परिवेषोंका स्वरूप कहा वैसा कहूँगा।
भावार्थ-जैसे पहले उल्का और परिवेषों का स्वरूप व उनका फल कहा था उसी प्रकार अब मैं प्रशस्त और अप्रशस्त विद्युतों का भेद, स्वरूप, फलादि कहूँगा॥१॥
सौदामिनी च पूर्वा च कुसुमोत्पलनिभा शुभा। निरभ्रा निकेशी च क्षिप्रगा चाशनिस्तथा॥२॥ एतासां नाभिर्वर्षं ज्ञेयं कर्मनिरुक्तिता।
भूयो व्यासेन वक्ष्यामि प्राणिनां पुण्यपापजाम् ॥३॥ (सौदामिनी) सौदामिनी (च) और (पूर्वा) पूर्वा बिजली (कुसुमोत्पलनिभा) कमलके पुष्पके समान प्रकाश वाली हो तो, (शुभा) शुभ है, (निरभ्रा) बादलों से रहित, (मिश्रकेशी) मिश्रकेशी (च) और (क्षिप्रगा) शीघ्रगमन करने वाली, (च)
और (तथा) तथा (अशनि) बज्र के समान हो तो (एतासां) इतने नाम वाली हो तो, वर्षा लाने वाली है (कर्मनिरुक्तिता) इसकी निरुक्तिके द्वारा (ज्ञेयं) जान लेना चाहिये। (प्राणिनां) प्राणियों के (पुण्यपापजाम्) पुण्य और पाप से उत्पन्न होने वाली ऐसी बिजली को मैं (व्यासेन) विस्तारपूर्वक (वक्ष्यामि) कहूँगा।
भावार्थ—जो प्राणियों के पुण्य और पाप से उत्पन्न होने वाली बिजली