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त्रयोदशोऽध्यायः
( चतुःपदो द्विपदो वा ) मनुष्य या तिर्यञ्च ( निवर्तते ) लौटकर वापस आवे तो (सा) उसकी (यात्रा) यात्रा ( विशिष्यते ) सफल (न) नहीं होगी।
भावार्थ — राजा के प्रयाण समय में उसकी सेना से कोई मनुष्य या पशु स्व गाँव की तरफ वापस लौटकर आ जावे तो समझो राजा की यात्रा सफल नहीं होगी, अनिष्टकारी है ।। ८५ ।।
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प्रयातो यदि वा राजा निपतेद् वाहनात् क्वचित् । अन्यो वाऽपि गजाश्वो वा साऽपि यात्रा जुगुप्सिता ॥ ८६ ॥
( यदि ) यदि (प्रयातो) प्रयाण के समय (राजा) राजा ( वाहनात् ) वाहनादि से ( क्वचित् ) अगर ( निपतेद् ) गिर पड़े (अन्यो वाऽपि ) व अन्य भी ( गजाऽश्वो ) हाथी, घोड़े गिरे पड़े तो (साऽपि ) वो भी (यात्रा) यात्रा (जुगुप्सिता) जुगुप्सत को प्राप्त होती है।
भावार्थ-यदि राजा प्रयाण के समय अपनी सवारी से नीचे गिर पड़े अथवा हाथी, घोड़े आदि चाहन से गिर पड़े तो समझो पल की हार होती है राजा अपनी यात्रा में सफल नहीं होता ॥ ८६ ॥
क्रव्यादाः निवेदयन्ति
पक्षिणो यत्र निलीयन्ते ते राज्ञस्तस्य
ध्वजादिषु । घोरं चमूवधम् ॥ ८७ ॥
राजा के प्रयाण समय में (ध्वजादिषु ) ध्वजादिक पर ( क्रव्यादाः पक्षिणो यत्र निलीयन्ते) मांस भक्षी पक्षी बैठ जाय तो (ते) वे (तस्य) उस (राज्ञः) राजा क (चमू) सेना का ( घोरं ) घोर (वधम् निवेदयन्ति ) वध होने की सूचना देता है ।
भावार्थ-यदि राजा युद्ध के लिये प्रयाण करता हो उस समय में राजा की ध्वजा, छत्रादि पर कोई मांस भक्षी पक्षी बैठ जाय तो समझो राजा की सेना का भयंकर वध हो जायगा, ऐसी सूचना देता है ॥ ८७ ॥
राजा निवर्तन्तो
मुहुर्मुहुर्यदा
प्रयातः
निमित्ततः । संयुगे ॥ ८८ ॥
परचक्रेण
सोऽपि
वध्येत
( यदा) यदा (राजा) राजा ( मुहुर्मुहुः ) धीरे-धीरे ( निमित्ततः ) निमित्त पाकर