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भद्रबाह संहिता
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(यत्र) जहाँ (व्याधय: प्रबला) व्याधियाँ प्रबल हो जाय (माल्यगन्धं न वायते) माला मगन्म देना छोड़ दे (आहूतिपूर्ण कुम्भाश्च विनश्यन्ति) आहूति का मंगल कलश नष्ट हो जाय वहाँ पर (भयंवदेत्) भय उत्पन्न होगा ऐसा कहना चाहिये।।
भावार्थ-जहाँ अकस्मात् रोग शक्तिमान हो जाय फूलों की माला सुगन्ध देना छोड़ दे, और आहूति का मंगल कलश नष्ट हो जाय, तो समझो वहाँ पर भय उत्पन्न होगा॥ १४०॥
नववस्त्रं प्रसङ्गेन ज्वलते मधुरा गिरा।
अरुन्धती न पश्येत स्वदेहं यदि दर्पणे॥१४१॥
यदि (नववस्त्रप्रसङ्गेन ज्वलते) नया कपड़ा अकारण ही जल जाय, (मधुरा गिरा अरुन्धतीं) मधुर वचन मुँह से निकले (यदि) जब (स्वदेहं दर्पणे न पश्येत्) अपना शरीर दर्पण में न दिखे तो मृत्यु भय होता है।
भावार्थ-अकस्मात् नवीन वस्त्र जलजाय, मुँह से अच्छे व मीठे शब्द निकले और अपना शरीर दर्पण में न दिखे तो भी मरण भय उत्पन्न होगा ।। १४१ ।।
न पश्यति स्व कार्याणि परकार्यविशारदः। मैथुने यो निरक्तश्च न च सेवति मैथुनम्॥१४२॥ न मित्रचित्तो भूतेषु स्त्री वृद्धं हिंसते शिशुम्।
विपरीतश्च सर्वत्र सर्वदा स भयावहः॥१४३॥ (न पश्यति स्वकार्याणि) जो अपने कार्य तो नहीं देखता (परकार्य विशारदः) दूसरे के कार्य करने में विशारद है (मैथुने यो निरक्तश्च न च सेवति मैथुनम्) जो मैथुन करने में उद्यमशील होने पर भी मैथुन नहीं कर पा रहा है (न मित्रचित्तो) मित्र में जिसका चित्त आसक्त नहीं है। (स्त्री, वृद्धं शिशुम्) स्त्री वृद्ध और बालक की हिंसा होती है (सर्वत्र सर्वदा भूतेषुविपरीतश्च) सर्वत्र सर्वदा सम्पूर्ण जीवों में विपरीता दिखे तो (स भयावहः) वह भय उत्पन्न करती है।
भावार्थ-जो अपने कार्य में दक्ष न होकर पर कार्य करने में निपूर्ण हो, मैथुन करने में आसक्त होने पर भी मैथुन न कर पा रहा हो, और अपने मित्र के चित्त में आसक्त न हो पाने के कारण उसके ऊपर विश्वास नहीं करता हो,